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“नेता के नेतृत्व में एकता” में एक और कमी है- मीडिया-मालिक नेता का नाम /प्रतिष्ठा आसानी से बर्बाद कर सकते हैं उसके खिलाफ झूठे वित्तीय आरोप लगाकर अथवा दसों/अनेक अन्य प्रकार से बर्बाद कर सकते हैं । वे लोग जो किसी नेता के नेतृत्व में एक होने की कोशिश कर रहे हैं वे बर्फ की धरातल पर चल रहे हैं। यदि शत्रु बर्फ की धरातल को किसी प्रकार तोड़ लेता है तो वापस लौटने के लिए कोई समय नहीं बचेगा।
(15.17) “ एक संगठन के नीचे एकता कायम करके ” क्लोन निगेटिव की स्थिति से उबरने का प्रयास भी बेकार / व्यर्थ है |
एक संगठन क्या होता है? यह कुछ लोगों का एक समूह होता है जो उस संगठन के भीतर कानूनों के एक सेट/समूह का पालन करने के लिए सहमत होते हैं। अधिकांश संगठनों के पास एक ऐसी चीज होती है जिसे वे संविधान कहते हैं। अब जर्मनी जैसे अनेक देशों ने ऐसे कानून और ऐसी प्रक्रियाएं लागू की हैं जो किसी भी राजनैतिक दल के संविधान को इसके नेताओं पर बाध्यकारी बना देता है। उदाहरण के लिए, यदि जर्मनी में किसी राजनैतिक दल का संविधान यह कहता है कि कोई चुना गया उम्मीदवार पार्टी के अन्दर के प्राथमिक चुनाव द्वारा चुना जाएगा तो जर्मनी के चुनाव आयोग के पास यह लागू करने की शक्ति मौजूद है कि पार्टी के भीतर ऐसे आन्तरिक चुनाव अवश्य हों। जर्मनी जैसे देशों के पास उनके मार्ग में आने वाले विवादों को सुलझाने के लिए फास्ट-ट्रैक/विवाद तेजी से निपटाने वाले कोर्ट भी हैं । भारत में आज की तिथि तक ऐसा कोई कानून या ऐसी कोई प्रक्रिया मौजूद नहीं है। और हमारे न्यायालय बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं और ऐसे किसी कानून को बनाने/लाने के लिए बहुत ही धीमे हैं। वास्तव में कोई भी कानून चुनाव आयोग को किसी राजनैतिक दल के संविधान को उस दल के नेताओं पर लागू कराने की शक्ति नहीं देता। और यहां तक कि यदि ऐसा कोई कानून किसी कानून के किताब के किसी कोने में मौजूद भी है तो चुनाव आयोग के पास समय और जन-शक्ति/जनबल ही नहीं है कि वह 950 पंजीकृत पार्टियों/दलों में उनके अपने-अपने संविधानों को लागू करवा सके और यदि चुनाव आयोग आज ऐसा करने की कोशिश करे भी तो इससे केवल सैंकडों ऐसे मुकद्दमें न्यायालयों/कोर्ट में दायर हो जाएंगे जिन्हें सुलझने में वर्षों लगेंगे क्योंकि आज हमारे न्यायालय बहुत ही धीमें हैं और बहुत ज्यादा भ्रष्ट भी हैं। आज की स्थिति के अनुसार, किसी राजनैतिक दल का एक संविधान होना जरूरी है और उन्हें इसकी एक प्रति चुनाव आयोग को देनी पड़ती है। चुनाव आयोग इन कागजातों को केवल फाइलों में रख लेता है और इन्हें अपनी वेबसाइट पर डालने तक की जहमत नहीं उठाता/परवाह नहीं करता | और चुनाव आयोग शायद ही कभी पार्टियों के इन आन्तरिक संविधानों को पढ़ने की कोशिश करता है, इन्हें लागू करने की बात तो भूल ही जाइए।
आज की तारीख में, जब चुनावों के टिकट दिए जाते हैं तो चुनाव आयोग के पास इसके संबंध में एक ही कानून है – वह दल के अध्यक्ष के बताए अनुसार किसी उम्मीदवार को पार्टी का चुनाव चिन्ह आवंटित कर देता है। अब यदि उस दल/पार्टी के संविधान में उल्लेख है/लिखा है कि स्थानीय उम्मीदवार दल के सदस्यों द्वारा चुना जाना चाहिए और पार्टी–अध्यक्ष ने यदि पार्टी के भीतर स्थानीय चुनाव नहीं करवाया है तो भी चुनाव आयोग के पास ऐसे चुनाव करवाने के लिए पार्टी/दल को बाध्य करने का कोई पूर्व- उदाहरण या परंपरा नहीं है। चुनाव आयोग सिर्फ पार्टी–अध्यक्ष के पत्र के अनुसार ही अपनी कार्रवाई करता है।
इसलिए आज के कानूनों और परंपरा/रिवाज/चलन के अनुसार ये तथाकथित संगठन पार्टी नेताओं की निजी संपत्ति बनकर रह गए हैं। इसलिए कोई संगठन उतना ही लोकतांत्रिक अथवा अच्छा होता है जितना उस पार्टी के शीर्ष पर बैठे नेता । दूसरी बात कि संगठन में कुछ ही एक-आध नेताओं का प्रमुखता/प्रभुत्व होता है | इसलिए, “अच्छे आंतरिक नियमों वाले किसी अच्छे संगठन के तहत एकजूट होना” भी “एक अच्छे नेता के नेतृत्व में एकजूट” होने से कुछ अलग नहीं है और दोनों में एक समान समस्याएं हैं। यह क्लोन निगेटिव है क्योंकि अच्छे आंतरिक नियमों वाले दो संगठन एक दूसरे का अवसर/प्रभाव कम कर देते हैं और विश्वास कायम करने में तो अव्यवहार्य रूप से काफी समय लगता है।
(15.18) क्लोन-निगेटिव की स्थिति से उबरने के लिए समाचारपत्र–मालिकों का सहयोग लेना कुछ कारगार , कुछ बेकार है |
जैसा कि मैंने बताया “चुनाव जीतकर कानूनों को बदलने” का प्रयास क्लोन निगेटिव है। इसलिए क्लोन निगेटिव की इस स्थिति से उबरने के लिए विभिन्न कार्यकर्ता नेता अनेक तरीके अपनाते हैं। जैसे- “एक नेता के नेतृत्व में एक जूट होना” और “एक संगठन के तहत एकजूट होना” । मैंने विस्तार से बताया है कि कैसे ये दोनों तरीके क्लोन निगेटिव हैं और इनमें बहुत ज्यादा समय बरबाद होता है।
एक तरीका जो कार्यकर्ता नेता क्लोन निगेटिव की स्थिति से उबरने/बचने के लिए अपनाते हैं, वह है – मीडिया-मालिकों का उपयोग। कुछ कार्यकर्ता नेता समाचारपत्र मालिकों अथवा टेलिविजन चैनलों के मालिकों अथवा वित्तीय धुरंधरों/नामी संस्थाओं का समर्थन पाने का प्रयास करते हैं और सफल भी हो जाते हैं। उनके समर्थन का उपयोग करके कार्यकर्ता नेता ईमानदार कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या तक पहुँच बना लेते हैं और इस प्रकार एक ज्यादा बड़े समूह का निर्माण कर लेते हैं। यह समूह उन कार्यकर्ता नेताओं के समूहों से कहीं ज्यादा बड़ा होता है जिन्हें मीडिया-मालिकों तथा विशिष्ट/उच्च वर्ग के लोगों का समर्थन नहीं मिला होता है। यह तरीका कारगर तो होता है लेकिन इसमें एक बड़ी कमी होती है कि यदि समाचारपत्र मालिकों और टेलिविजन चैनलों के मालिकों का ऐजेंडा/कार्यसूची ईमानदार नहीं हुआ तो क्या होगा? मैं यह नहीं मानता कि सभी समाचारपत्र मालिकों और सभी टेलिविजन चैनलों के मालिकों का ऐजेंडा/कार्यसूची भारत विरोधी है। कुछ मालिक वास्तव में अच्छे हो सकते हैं जैसा कि कुछ अच्छे लोग हमें हर कहीं मिल जाते हैं। लेकिन यह संभावना होती है कि उन विशिष्ट लोगों का ऐजेंडा/कार्यसूची भारत विरोधी हो। लेकिन यदि कार्यकर्ता नेता प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समाचारपत्र मालिकों अथवा टेलिविजन चैनल मालिकों अथवा किसी ऐसे विशिष्ट /ऊंचे लोगों पर निर्भर है जो भारत विरोधी हैं तो उसका परिणाम गलत या उल्टा भी हो सकता है।