और कृपया ध्यान दीजिए – दयानंद सरस्वती जी संविधान-अधीन राजा के बारे में नहीं कहते। वे प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) के बारे में कहते हैं। भारत में, 4 अंकों के स्तर के बुद्धिजीवियों ने हमेशा उस बात का विरोध किया जो अथर्ववेद और सत्यार्थ प्रकाश सुझाते हैं I 4 अंकों वाले स्तर के ये बुद्धिजीवी कहते हैं कि राजा और राज कर्मचारी अर्थात सरकारी कर्मचारियों को प्रजा के अधीन कदापि नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें केवल संविधान के अधीन होना चाहिए। संविधान-अधीन राजा अर्थात संविधान-अधीन मंत्री, संविधान-अधीन अधिकारी, संविधान-अधीन पुलिसवाले और संविधान-अधीन न्यायाधीश की पूरी संकल्पना ही एक छल है क्योंकि तथाकथित संविधान की व्याख्या को न्यायाधीशों, मंत्रियों आदि द्वारा एक मोम के टुकड़े की तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है |
(6.21) पश्चिम के पास प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल–प्रधानमंत्री , प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल–सुप्रीम कोर्ट जज नहीं है , तो हमें इसकी क्या आवश्यकता है? |
मैं प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) की प्रक्रिया/तरीके का प्रचार करता रहा हूँ जिसके द्वारा हम आम जनता प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों तथा जजों को उनके पद से हटा सकते हैं। सभी बुद्धिजीवियों ने इस बात का विरोध किया तथा इस नियम को संविधान विरुद्ध बताने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। फिर, इसमें बुरी तरह असफल रहने पर उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि “ पश्चिम में इस तरह की कोई विधि/प्रक्रिया नहीं है तो भारत में इस तरह की किसी विधि/प्रक्रिया की क्या जरुरत है ?”
देखिए, अमेरिका के नागरिकों के पास वह विधि/प्रक्रिया है जिसके द्वारा वे जिला स्तर के प्राधिकारियों/पदाधिकारियों को उनके पद से हटा सकते हैं। तथा अमेरिका के 20 राज्यों में नागरिकों के पास गवर्नर को भी पद से हटाने का अधिकार है तथा बाकी बचे हुए 30 राज्यों के गवर्नर ये जानते हैं कि यदि उन्होंने बुरा बर्ताव किया तो नागरिक इस तरह की किसी विधि का निर्माण करके उन्हें भी पद से हटा सकने में सक्षम/समर्थ हैं और फिर वे उसका प्रयोग करके उन्हें हटा देंगे। इसलिए जहाँ 20 राज्यों के गवर्नर जनता द्वारा निष्कासित होने/हटाए जाने के प्रत्यक्ष/प्रकट खतरे का सामना करते हैं वहीँ 30 राज्यों के गवर्नर भी परोक्ष/अप्रकट रूप से इस खतरे का सामना करते हैं।
फिर भी एक प्रश्न बना रह जाता है – अमेरका के नागरिकों के पास राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति और सीनेटरों को हटाने की प्रक्रिया नहीं है। तो भी वर्ष 1929 में जब करोड़ों अमेरिकावासियों की नौकरियां छूट गईं तो सीनेटर, राष्ट्रपति और अभिजात्य/कुलीन वर्ग ने 70 प्रतिशत आयकर, 70 प्रतिशत विरासत-कर जैसे अनेक कानून लागू कर दिए और इन कानूनों का उपयोग कल्याणकारी और रोजगार संबंधी योजनाओं को लागू करने के लिए आवश्यक फंड/धन जुटाने में किया। लेकिन कैसे ? कैसे अमेरिकी संघीय सरकार आमलोगों के हितों के लिए ऐसी कार्रवाई कर पाई? क्योंकि वर्ष 1929 में, 70 प्रतिशत से अधिक अमेरिकी जनता के पास बंदूकें थीं। अमेरिका और यूरोप में कल्याणकारी राज्य/वेलफेयर स्टेट 1930 के दशक में “सशस्त्र शांतिपूर्ण क्रांति” के जरिए आए। यह विरोधाभासी लग सकता है लेकिन ऐसा नहीं है। रूस में केवल 10 से 15 प्रतिशत जनसंख्या के पास हथियार थे। और इसलिए जार/शाह उन्हें दबाने की सोच सकते थे। उसने( जार ने) कोशिश की और इसलिए वहां सशस्त्र क्रान्ति हुई। लेकिन अमेरिका और इंग्लैण्ड में 70 प्रतिशत से ज्यादा वयस्कों के पास हथियार थे और कुलीन/अभिजात वर्ग के लोग यह जान गए कि जनता को तब भी दबाया नहीं जा सकता जब सभी पुलिसवालों और सिपाहियों को तैनात कर दिया जाए। और इसके अलावा उनके सामने 1917 की रूसी क्रान्ति का उदाहरण मौजूद था जिसकी यादें अभी भी उनके मन में ताजा थीं। इसलिए वर्ष 1932-36 में अमेरिकी कुलीन/अभिजात वर्ग के लोगों ने कल्याणकारी और रोजगार की योजनाओं को लागू करने के लिए मरनोपरांत `विरासत कर` के रूप में अपनी सम्पत्ति का 40 से 70 प्रतिशत तक और अपनी आय का भी 40 से 70 प्रतिशत आयकर के रूप में देने पर सहमत हो गए। ऐसा किसी भलाई के उद्देश्य से नहीं किया गया था बल्कि हथियार-बन्द नागरिक समुदाय से अपनी बची 30 प्रतिशत आय और 30 प्रतिशत सम्पत्ति बचाने के तरीके के रूप में किया गया था। दूसरे शब्दों में, यह कल्याणकारी राज्य, सशस्त्र शांतिपूर्ण क्रान्ति का ही परिणाम था।
नेता, प्रमुख बुद्धिजीवी तथा विशिष्टवर्ग/अभिजात वर्ग के लोग केवल दो ही बातों की चिंता करते है : बन्दूक तथा वापस बुलाने/हटाने के अधिकार का डर, और किसी बात की नहीं। उन्हें अपना सम्मान ,चरित्र आदि के पतन/धूमिल हो जाने का डर नहीं है, अंतरात्मा जैसी किसी बात की तो वे परवाह ही नहीं करते। उन्हें गरीबी से मर रही हम आम जनता की कोई फिक्र नहीं है। उदहारण के लिए, 1940 में, जब 40 लाख जनता भूख से मर गई , उस समय तथाकथित प्रमुख बुद्धिजीवी तथा विशिष्टवर्ग/कुलीन वर्ग के लोग उसी तरह खा पी, मौज मस्ती कर रहे थे तथा उन्होंने जनता की जरा भी परवाह नहीं की। इसी तरह, आज (1991-2008) भी, आप देखिये, नेता, बुद्धिजीवी, तथा विशिष्टजन/अभिजात वर्ग और अधिक संख्या में आई आई टी, आई आई एम , जे एन यू, यू जी सी, पूलों, हवाई मार्ग, बेहतर हवाई अड्डे , बेहतर बंदरगाह और सेज आदि की माँग कर रहे हैं। जब आप हर वर्ष 1000 रूपए की दवाईयों/भोजन के अभाव में हर वर्ष लाखों शिशुओं /बच्चों के दम तोड़ देने की बात करते हैं, तब भारत के ये नेता, बुद्धिजीवी तथा विशिष्टजन उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण, उदयमान भारत (राइजिंग इंडिया), शाइनिंग इंडिया, फील गुड फैक्टर, अतुल्य भारत (इनक्रेडेबल इंडिया), 8 प्रतिशत विकास दर के समूह गान का राग एक सुर में राग अलाप रहे हैं। जहां रोम के पास एक नीरो था, भारत के 98 प्रतिशत से ज्यादा नेता, बुद्धिजीवी, अभिजात वर्ग के लोग नीरो हैं। अमेरिका के विशिष्टजन/ उच्चवर्ग ने ऐसी नीरोगिरी नहीं दिखाई क्योंकि वहाँ की 70 प्रतिशत जनता के पास बंदूकें थीं। भारत के नेता, बुद्धिजीवी और विशिष्टजन ऐसी नीरोगिरी दिखाते हैं क्योंकि मध्यम/निम्न वर्ग की 95 प्रतिशत आम-जनता में से 2 प्रतिशत जनता के पास भी हथियार नहीं हैं। इसलिए “ उन्हें भूखों मरने दो तथा हमें फलने फूलने दो” यही प्रमुख भारतीय उच्चवर्ग/ अभिजात वर्ग, भारतीय नेता और भारतीय बुद्धिजीवी की सोच है ।