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(23.12) वर्तमान रुपया प्रणाली (सिस्टम) और `नागरिक रूपया प्रणाली (सिस्टम)` के बीच मुख्य अंतर |
वर्तमान अभिजातों की रूपया प्रणाली |
प्रस्तावित नागरिकों की रूपया प्रणाली |
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर/निदेशकों को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं। चुंकि महा-धनवान लोगों के प्रधानमंत्री के साथ गठजोड़ होते हैं और वे समाचार-पत्र/टेलिविजन आदि का उपयोग करके प्रधानमंत्री को ब्लैकमेल करते हैं, अत: वास्तव में ये महा-धनवान लोग ही इन पदों पर आनेवालों के संबंध में निर्णय करते हैं। इसलिए, नागरिकों का भारतीय रिजर्व बैंक के निदेशकों आदि पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। | भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर/निदेशकों को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं। लेकिन, अनुमोदन/स्वीकृति दर्ज करने और जूरी द्वारा सुनवाई के जरिए, नागरिकगण उन्हें हटा/बर्खास्त कर सकेंगे। इसलिए, नागरिकों का उनपर नियंत्रण होगा। |
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ,प्रधानमंत्री/वित्त मंत्री और महा-धनवान लोगों से परामर्श करके रूपए जारी करते हैं। निजी बैंकर भी `शून्य(हवा) से पैसे बनाते हैं`। | भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर नागरिकों के बहुमत से अनुमोदन/स्वीकृति मिलने पर ही रूपए जारी कर सकेंगे। |
विवाद जजों द्वारा सुलझाए जाते हैं। कुछ वकीलों और रिश्तेदार वकीलों के साथ लगातार/हमेशा की नजदीकी के कारण जजों के भी वकीलों से सांठ-गाँठ/मिली-भगत विकसित हो जाते हैं और इसलिए विवाद का निपटान में उन लोगों के पक्ष में ,पूर्वाग्रह से ,फैसला दिया जाता है जो इन वकीलों को काम पर रखने में (पैसें से) समर्थ होते हैं। साथ ही, भारत के नागरिकों का विश्वास जजों पर से उठ गया है और भारतीय जज बहुत ही व्यस्त होते हैं और शायद ही कभी किसी मुकद्दमें को समय पर निपटाते हैं। | विवाद 12 सदस्यों वाले जूरी-मंडल (जिन्हें आम नागरिकों द्वारा क्रमरहित तरीके से चुना जाता है) द्वारा सुलझाए जाते हैं। इन जूरी-सदस्यों को अपराधियों के प्रति कुछ ज्यादा ही घृणा का भाव होता है। साथ ही, वकीलगण जूरीमंडल/जूरर्स से सांठ-गाँठ/मिली-भगत नहीं कर पाते क्योंकि हर सुनवाई के बाद जूरर्स बदल जाते हैं। इसके अलावा, जूरर्स कई दिनों तक बिना किसी रूकावट के लगातार सुनवाई कर सकते हैं और इस तरह वे मुकद्दमों का फैसला अधिक तेजी से करते हैं। |
(23.13) शासकीय / सरकारी कर्ज़ |
क्या किसी पिता को अपने पुत्र/बेटे की ओर से वायदे करने का अधिकार है? या क्या किसी पिता को अपने पुत्र/बेटे को कर्ज़दार बनाने का अधिकार होना चाहिए? या फिर, क्या किसी बाप को अपने बेटे को गुलामी में धकेलने का अधिकार है? यदि नहीं, तो फिर सरकार को भी कर्ज़ लेने का कोई अधिकार नहीं है। किसी भी व्यक्ति का कर्ज़ उसके साथ ही मर जाता है। एक निजी कंपनी का कर्ज़ कंपनी के खत्म हो जाने या फिर उसके मालिक के मर जाने के साथ ही खत्म हो जाता है। तथा एक सार्वजानिक कंपनी का कर्ज़ कम्पनी के शेयरधारकों की देनदारी/जिम्मेदारी नहीं होती तथा यह देनदारी दूसरी पीढ़ी तक नहीं जाती। लेकिन सरकारी कर्ज़ जो आज के/इस पीढ़ी के व्यक्तियों द्वारा नियुक्त अधिकारियों द्वारा दिया जाता है वो दूसरी पीढ़ी तक एक बड़े ब्याज के साथ जाता है। सरकारी कर्ज़ निश्चित रूप से एक ऐसी प्रक्रिया/तंत्र है जिसके द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक – प्रमुख/संचालक तथा अनुसूचित बैंकों के मालिक/नियंत्रक भारतीयों को अपना गुलाम बना रहे हैं। आतंरिक कर्ज़ तो फिर भी करेंसी(मुद्रा) की मुद्रास्फीति बढाकर खत्म किया जा सकता है। लेकिन बाहरी कर्ज़ का क्या होगा? कोई भी वित्त मंत्री, जिसके अंदर 1 प्रतिशत भी नैतिकता बाकी है, वह विदेशी करेंसी/मुद्रा के रूप में कर्ज़ लेने में अवश्य संकोच करता। संक्षेप में, मनमोहन सिंह (तथा अन्य वित्त मंत्रियों) ने क्या किया है, उन्होंने अमेरिकी बैंकों से कहा “हमें X बिलियन डॉलर दीजिए तथा हमारे बच्चे ये कर्ज़ चुकायेंगे, और अगर वे ऐसा न कर पाए तो वे आपके गुलाम रहेंगे”। अगर किसी (नागरिक) में थोड़ी भी नैतिकता बाकी है तो वह लोगों को कर्जदार बनाने की सरकार की इस संकल्पना/सिद्धांत/विचार को नामंजूर कर देगा | हम राइट टू रिकॉल ग्रुप/ प्रजा अधीन राजा समूह के लोगों ने एक ऐसा कानून बनाया है जिसके द्वारा नागरिक (बहुमत अनुमोदन द्वारा ) किसी ऐसे अधिकारी को जेल में डाल सकेंगे जो बाहरी या फिर आतंरिक कर्ज़ लेता है इस प्रकार सरकारी कर्ज़ की प्रक्रिया का खात्मा हो जायेगा। (अध्याय-27 देखें)
(23.14) महंगाई को कैसे रोक / नियंत्रण सकते हैं |
मुद्रास्फीति/महंगाई का एकमात्र कारण करेंसी/मुद्रा की आपूर्ति/सप्लाई में होनेवाली वृद्धि है। प्रस्तावित कानून में यह बंदिश होगी कि भारतीय रिजर्व बैंक 50 प्रतिशत से अधिक नागरिकों की अनुमति के बिना एम 3(कुल मुद्रा संख्या) नहीं बढ़ा सकेगा। अनुमति लेने का खर्च लगभग 150 करोड़ से 300 करोड़ होगा। इसलिए यदि नागरिकों से एक वर्ष में 4 बार भी (ऐसा करने के लिए) कहा जाएगा तो भी लागत 1200 करोड़ रूपए आएगी। क्या यह लागत बहुत अधिक है? देखिए, भारतीय रिजर्व बैंक ने रूपए की आपूर्ति में वर्ष 2007-2008 के 12 महीनों में 750,000 रूपए की वृद्धि की है। इसलिए अनुमति लेने की लागत 0.5 प्रतिशत से भी कम है और इसलिए यह बहुत ही वहनीय/उठाने जाने लायक लागत है।
(23.15) महंगाई और अंतर्रष्ट्रीय और राष्ट्रिय कच्चे तेलों के दाम में बढ़ोत्तरी |
1991 के बाद से, हर सरकार ने इस तरह नोटों की छपाई की है जैसे कोई कल नहीं है |
अमेरिका में कुल मुद्रा संख्या (M3) तीन से पांच गुना बड़ी है | भारत में कुल मुद्रा संख्या 15-16 गुना बड़ी है , 1991 में रु.2,65,000 करोड़ थी और अब रु . 38,00,000 करोड़ है | भारत सरकार ने 4 वर्षों (2004-2008) में आज़ादी के पश्चात 53 वर्षों से अधिक नोट छापे हैं !!
कच्चे तेल की पूर्ति 2% के दर से या अधिक हर साल बाद रही है पिछले 18 सालों/वर्षों से| ये जनसंख्या वृद्धि के दर से अधिक है | लेकिन जैसे डॉलर/रुपये की आपूर्ति बदती है, ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास डॉलर होंगे और गाड़ी,वाहन, हवाई-टिकेट खरीदेंगे | इसीलिए कच्चे तेल के दाम बढेंगे| दूसरे शब्दों में, नोटों की छपाई से नोटों की गिनती पहले बड़ी, और फिर कच्चे तेल की कीमत बड़ी |
यदि भारत सरकार ने M3(कुल मुद्रा संख्या ) का स्तर 1991 जितना रखा होता, तो कच्चे तेल की कीमत 110 अमेरिकी दोल्लर प्रति बैरेल चले गयी होती, लेकिन एक रूपया तीन रुपये बराबर होती | इसीए कच्चे तेल की कीमत रुपयों में अपरिवर्तित होती 1991 से यदि भारत सरकार ने पिछले 17 वर्षों में इतने रुपये न छापे होते|