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अब क्या भारतीय स्टेट बैंक द्वारा बनाये गए रूपए और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाये गए रूपए में कोई अन्तर होता है? मेरा उत्तर है- मैंने इस प्रश्न का जवाब अनेकों अर्थशास्त्रियों से पूछा है और उनमें से कोई भी भारतीय रिजर्व बैंक के रूपए और भारतीय स्टेट बैंक के रूपए के बीच कोई अन्तर बता नहीं पाया । और एक आम गलत तर्क यह दिया जाता है कि : यदि भारतीय स्टेट बैंक का प्रत्येक खाताधारक भारतीय स्टेट बैंक में जाकर अपने–अपने भारतीय स्टेट बैंक जमा के बदले भारतीय रिजर्व बैंक रूपए मांगे तो भारतीय स्टेट बैंक चूककर्ता/डिफाल्टरहो जाएगी। और भारतीय स्टेट बैंक जमाकर्ताओं को भारतीय रिजर्व बैंक के नोट देने में समर्थ नहीं हो पाएगी। यह तर्क गलत है। यदि भारतीय स्टेट बैंक के सभी जमाकर्ता भारतीय स्टेट बैंक में जाएं और भारतीय रिजर्व बैंक के नोट मांगें तब वित्त मंत्री और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को यह निर्णय करना होगा कि वे भारतीय स्टेट बैंक को चूककर्ता/डिफाल्टर होने देना चाहते हैं या भारतीय स्टेट बैंक को बचाना चाहते हैं। यदि वे चाहते हैं कि भारतीय स्टेट बैंक चूककर्ता/डिफाल्टर हो जाए तो हां, भारतीय स्टेट बैंक निश्चित रूप से चूककर्ता/डिफाल्टर हो जाएगी। लेकिन यदि वे भारतीय स्टेट बैंक को बचाना चाहते हैं तो भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर आवश्यक संख्या में भारतीय रिजर्व बैंक के नोट छापकर इसे भारतीय स्टेट बैंक बौन्ड के बदले अथवा सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक के ऋण के रूप में भारतीय स्टेट बैंक को भिजवा देंगे। इसलिए सारांशत: यह मानते हुए कि वित्त मंत्री और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर किसी भी परिस्थिति में भारतीय स्टेट बैंक को चूककर्ता/डिफाल्टर बनने नहीं देंगे, तो भारतीय स्टेट बैंक के खाते में पड़े रूपए भी भारतीय रिजर्व बैंक नोटों के समान/बराबर हैं ।
(23.6) नए बनाये गए रुपये कौन देता है और किसे दिए जाते हैं? |
भारतीय रिजर्व बैंक भारतीय रूपयों को करेंसी(मुद्रा), नोटों के रूप में बनाकर और भारतीय रिजर्व बैंक के बुक/किताब में जमा कर सकती है। भारतीय रिजर्व बैंक डॉलर जमा करवाने अथवा सरकारी बांडों के बदले रूपए बनाती है। उदाहरण – जब कोई व्यक्ति भारतीय रिजर्व बैंक में डॉलर जमा करता है तो भारतीय रिजर्व बैंक उतने रूपए मान लीजिए, 45 रूपए, बना सकती है और उस व्यक्ति को या उस बैंक को दे सकती है जिसमें उस व्यक्ति का खाता है। और भारतीय रिजर्व बैंक भारत सरकार के 100 रुपये बॉन्ड के बदले, 100 रूपए बना सकती है और भारत सरकार को दे सकती है। कुल मिलाकर, जो भी रूपया भारतीय रिजर्व बैंक बनाता है वह पैसा उस व्यक्ति के पास जाता है जिसने डॉलर जमा किए हों या भारत सरकार के पास जाता है। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक में नए छपे रूपयों के देने में बेतहाशा/ अनियंत्रित भ्रष्टाचार की संभावना बहुत ही कम है।
लेकिन जब एक गैर भारतीय रिजर्व बैंक जैसे भारतीय स्टेट बैंक आदि रूपए छापते हैं तो यह भारत सरकार या निजी संस्थान को ऋण के रूप में दिया जाता है। अप्रैल, 2010 के अनुसार, गैर भारतीय रिजर्व बैंक बैंकों ने सरकार को ऋण के रूप में 1,44,8041 करोड़ रूपए दिए हैं और निजी व्यक्तियों तथा कम्पनियों को 34,81,925 करोड़ रूपए दिए हैं। दूसरी तरह से हम कह सकते हैं कि गैर भारतीय रिजर्व बैंकों ने सरकार को 12,240 रूपए प्रति नागरिक का ऋण दिया है और नागरिकों को 29,430 रूपए प्रति नागरिक ऋण दिया है। सरकार को दिए गए ऋण में कोई भ्रष्टाचार नहीं होता लेकिन निजी इकाईयों / धंधों को ऋण देने में भ्रष्टाचार हो सकता है और बड़े ऋणों में, जिनमें कोई जमानत/गारंटी नहीं लिया जाता, वहां भ्रष्टाचार की बहुत संभावना होती है। और अकसर भ्रष्टाचार ही वह कारण होता है कि जिसके कारण बैंकों के चेयरमैन, वित्त मंत्रालय के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, वित्त मंत्री आदि हमेशा अधिक से अधिक रूपए (एम 3) बनाने और उसे ऋण के रूप में देने को उत्सुक रहते हैं। निजी इकाईयों /धंधो को दिए गए ऋण में से कई ऋण वापस ही नहीं आते अथवा पौंजी योजना लागू की जाती है जिसमें पुराने कर्ज़/ऋण केवल तभी चुकाए जाते हैं जब नए ऋण जारी किये जाते हैं या दिए जाते हैं। यदि ऋण नहीं चुकाया जाता है तो इससे बैंकों को और अधिक रूपए बनाने की जरूरत पड़ती है ताकि जमाधारकों/डिपॉजिटर्स का पुन:भुगतान किया जा सके। और जब किसी उधार लेने वाले को नए ऋण दिए भी जाते हैं ताकि वह पुराने ऋण चुका सके, तो भी बैंकों को नए ऋण लगातार जारी करते रहने के लिए रूपए बनाने ही पड़ते हैं। किसी भी परिस्थिति में नए छापे गए नोट प्रचलन/सर्कुलेशन में चले ही जाते हैं।
(23.7) निर्माण किया / बनाया गया रूपया कैसे धन चुरा रहा है? |
अधिकांश अर्थशास्त्री इस बात पर जोर देते हैं कि नागरिकों को भारतीय रिजर्व बैंक के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए और भारतीय रिजर्व बैंक जितने भी रूपए बनाना चाहता है, उसे बनाने देना चाहिए। और वे स्पष्ट तौर पर इनकार/मना कर देते हैं कि जब बैंकों द्वारा बनाये गए नए रूपयों, वर्तमान/पुराने नोटों की भी कीमत घटाएंगे । यह केवल उनकी(अर्थशास्त्रियों की)व्यक्तिगत राय है। जहां तक मैं समझता हूँ, नए बनाये गए हर रूपए के साथ ही मौजूदा/पुराने रूपयों की कीमत भी तदनुसार घटती है। अर्थात यदि रूपए की आपूर्ति/सप्लाई किसी वर्ष 20000 रूपए प्रति नागरिक है और यदि भारतीय रिजर्व बैंक (और अन्य बैंक) उसी वर्ष के दौरान प्रति नागरिक 20000 रूपया के बराबर एम – 3 बनाती है तो पैसे की कीमत लगभग आधी हो जाएगी और यह उन लोगों की संपत्ति की भी आधी हो जाएगी और उनकी आधी संपत्ति उन व्यक्तियों के हाथों में चली जायेगी जिन्हें नए छपे नोट/रूपए मिले हैं। इसे ठीक से समझने के लिए निम्नलिखित वास्तविक संख्याओं पर गौर/विचार करें –
विषय / विचार |
अप्रैल -2009 |
अप्रैल -2010 |
स्रोत |
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1 |
भारत की जनसंख्या |
116.87 करोड़ |
118.30 करोड़ |
दस्ता.-1, अप्रैल-09 पंक्ति दस्ता.-1, अप्रैल-10 पंक्ति |
2 |
भारत में रूपए की मात्रा |
48,58,917 करोड़ रूपए |
55,79,567 करोड़ रूपए |
दस्ता.-3, तालिका- 7 दस्ता.-3, तालिका- 7 |
3 |
प्रति नागरिक रूपए |
41,587 रूपए |
47,164 रूपए |
(2) को (1) से भाग दें |
4 |
प्रति व्यक्ति रूपए की मात्रा में वृद्धि |
5,585 रूपए |
47,164 रूपए – 41,587 रूपए |
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5 |
प्रति व्यक्ति रूपए की मात्रा में प्रतिशत वृद्धि |
13.4% |
इसलिए, अप्रैल, 2009 और अप्रैल, 2010 के बीच भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष और अन्य बैंकों के वरिष्ठ स्टॉफ ने वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री की शह/आशीर्वाद से अप्रैल, 2009 में (मौजूद) रूपयों के लगभग 14 प्रतिशत के बराबर रूपए बना दिए। इन रूपयों के छपने के बाद, नए बनाये गए रूपयों में से लगभग 40 प्रतिशत सरकार को दिए और शेष निजी इकाईयों/इन्टिटिज/धंधों को दिए गए। ये नए बनाये 14 प्रतिशत रूपए और कुछ नहीं बल्कि अप्रैल, 2009 में लोगों के पास के रूपयों में से लगभग 14 प्रतिशत की चोरी थी। यदि हम नियमित रूप से पाए जाने वाले लगभग 6 प्रतिशत ब्याज को घटा भी दें तो भी यह 8 प्रतिशत की चोरी तो है ही। इसलिए, रूपए का बनाना और बैंकों के अध्यक्ष, वित्त मंत्री (मंत्रालय) के अधिकारियों, प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री आदि के नजदीकी लोगों को देना रूपया धारकों के रूपए चुराने के बराबर/समान है।