1. कोई व्यक्ति, जो किसी राजनैतिक दल का सदस्य बनना चाहता है, उसे पटवारी के कार्यालय में जाकर 3 रूपए का शुल्क देकर जिस पार्टी का वह सदस्य बनना चाहता है, उसकी क्रम संख्या बताने/प्रस्तुत करने की जरूरत पड़ेगी और वह ऐसा कर सकता है। चुनाव आयोग किसी व्यक्ति को कितनी भी पार्टियों का सदस्य बनने की अनुमति देगा।
2. पटवारी/तलाटी नामों को चुनाव आयोग की वेबसाईट पर डालेगा।
3. पार्टी अध्यक्ष चुनाव आयोग को एक सूची सौंपेगा जिसमें उसके द्वारा अनुमानित सदस्यों की सूची होगी। चुनाव आयोग इस सूची को भी चुनाव आयोग की वेबसाईट पर डालेगा।
4 पार्टी अध्यक्ष किसी सदस्यता को बिना कोई कारण बताए अगले एक माह में रद्द/समाप्त कर सकता है।
5. पार्टी का संविधान सदस्यों को 5 या उससे कम की श्रेणियों – क ,ख, ग, घ, च – में बांट सकता है।
- यदि पार्टी के संविधान में यह लिखा है कि विधायक के पद के लिए उम्मीदवार का चुनाव किसी श्रेणी विशेष के सदस्य द्वारा किया जाना जरूरी है तो जिला कलेक्टर किसी तहसीलदार को रखेगा/नियुक्ति करेगा जो किसी विशिष्ट(स्पष्ट बताये गए) श्रेणी में पार्टी सदस्यों के बीच चुनाव आयोजित करवाएगा और चुनाव आयोग केवल उसी (जीते हुए) उम्मीदवार को टिकट देगा ।
अभी ऊपर प्रस्तावित कानून का ड्राफ्ट तैयार नहीं हुआ है और चुनाव आयोग कलेक्टर, तहसीलदार और जजों में भ्रष्टाचार के स्तर को देखते हुए कोई भी पार्टी ऐसे क्लॉज/खण्ड को स्वीकार नहीं करेगी और बहुत कम नागरिक इस कानून को स्वीकार करने के लिए राजनैतिक दलों पर दबाव डालने के लिए राजी होंगे। यदि एक बार प्रजा अधीन राजा/राईट टू रिकाल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) कानून से चुनाव आयोग, कलेक्टर ,तहसीलदार और जजों में भ्रष्टाचार कम हो जाए तो नागरिक, राजनैतिक दलों पर पार्टी में अंदरूनी चुनाव के लिए दबाव बनाने के लिए राजी हो जाएंगे।
राईट टू-रिकाल/प्रजा अधीन राजा और राजनैतिक पार्टी का खर्चा
दोस्तों, यदि प्रजा अधीन-राजा(भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा बदलने का अधिकार) के प्रक्रियाएँ/तरीके लागू हैं, तो राजनैतिक पार्टियों के सभी खर्चे अस्त-व्यस्त हो जाएँगे!!
कैसे ? मान लीजिए कि एक पार्टी एक करोड़ का खर्चा करती है अपने लोकसभा क्षेत्र में और उनका उम्मीदवार जीत जाता है |
यदि उम्मीदवार भ्रष्ट और निकम्मा है और अपने चुनाव के वायदे नहीं निभाता , तो नागरिक उसे 2-3 महीनों में निकाल सकते हैं , जिससे पार्टी ने जो रिश्वतें दी हैं, उसका फायदा नहीं होगा, बल्कि नुक्सान होगा !!
इसीलिए सभी राजनैतिक पार्टियां सीट जीतने पर पैसा खर्च करना बंद कर देंगी और विकास पर ध्यान करना शुरू कर देंगी |
क्यों? क्योंकि कोई गारंटी नहीं है कि रिश्वत खिलाने और सीट जीतने पर एक करोड़ भी खर्चा करने के बाद भी , नया सदस्य अपने पद पर पूरे अवधि रह पाता है, यदि भ्रष्ट हो जाता है तो |
ये ही प्रजा अधीन-राजा या राईट टू रिकाल की प्रक्रियों की शक्ति है |
इसी कारण से भारत में सभी राजनैतिक पार्टियां प्रजा अधीन राजा/राईट टू रिकाल का विरोध करती हैं क्योंकि उनके गलत काम बंद हो जाएँगे |
(40.15) भारतीय अपने वोट बेचते हैं का मिथक / झूठी बात |
कनिष्ट/जूनियर कार्यकर्ताओं को लोकतंत्र के खिलाफ बनाने के लिए, मीडिया मालिक और कार्यकर्त्ता-नेता जो विशिष्टवर्ग और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा ख़रीदे हुए हैं , ने झूठी बात बना दी कि नागरिक अपने वोट बेचते हैं | ये लेख ये दर्शाता/बताता है कि कार्यकर्ता जो ये दावा करते हैं कि “भारतीय मतदाता अपने वोट वेचते हैं” या तो गलत सूचित /ग़लतफ़हमी के शिकार हैं या तो सरासर झूठे हैं |
साथ ही , जो प्रजा अधीन राजा /भ्रष्ट को बदलने की प्रक्रिया हमने ने प्रस्ताव की है, वो वैसे भी “भारतीय अपने वोट बेचते हैं” तर्क से प्रभावशून्य(प्रभावित नहीं) है |क्यों? क्योंकि `प्रजा अधीन राजा भ्रष्ट को बदलने` की प्रक्रियाओं में (जैसे प्रजा अधीन-प्रजान मंत्री, प्रजा अधीन-जिला शिक्षा अधिकारी,प्रजा अधीन-मुख्यमंत्री आदि)जो हमने प्रस्तावित की हैं, नागरिक अपने अनुमोदन/मत किसी भी दिन बदला सकता है|
तो यदि प्रत्याशी रु.100 देता है हर नागरिक को , तो नागरिक अगले सप्ताह/हफ्ते फिर से रु.100 मांग सकते हैं या फिर अपना अनुमोदन रद्द करने की धमकी दे सकते हैं | तो प्रत्याशी को रु.100 देना होगा हर मतदाता को हर हफ्ते/सप्ताह , जो व्यावहारिक और लाभकारी नहीं है| इसीलिए प्रस्तावित प्रजा अधीन राजा भ्रष्ट को बदलने की प्रक्रियाएँ “`प्रजा अधीन राजा भ्रष्ट को बदलने की प्रक्रिया` बुरी है क्योंकि भारतीय अपने वोट बेचते हैं “ तर्क से प्रभावशून्य(प्रभावित नहीं) है| फिर भी, मैं इस झूठी बात का खंडन करूँगा साथी भारतीय नागरिकों का सम्मान बचाने के लिए |
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शुरुवात के लिए ,यहाँ 4 बुनयादी जवाबी-तर्क प्रस्तुत हैं-
1.) पहला, मीडिया मालिकों ,कार्यकर्त्ता-नेताओं से पूछें “ लगबग कितने प्रतिशत नागरिक अपने वोट बेचते हैं “ और वो उसका सही उत्तर नहीं दे पाएंगे| एक बयान जैसे “भारतीय अपने वोट बेचते हैं “ यदि सही है, नापा जाने योग्य होना चाहिए | क्या वो 90% है या केवल 5% है?
2.) दूसरा, ये सत्य है कि प्रत्याशी पैसा और उपहार देते हैं और मतदाता उन्हें स्वीकार करते/लेते हैं |लेकिन हर मतदाता ये जानता है कि मतदान गोपनीय है | इसिलिय कुछ भी उसे नहीं रोकेगा अपना वोट देने से उस व्यक्ति को जिसे वो अपना वोट देना चाहे |
3.) और तीसरा, जो ये दावा करते हैं “ भारतीय अपने वोट बेचते हैं ”, अक्सर ऐसा भी दावा करते हैं कि “ भारतीयों के कमजोर नैतिक मूल्य हैं “. यदि मतदाता के कमजोर नैतिक मूल्य हैं, तो कुछ भी उसको रोक नहीं सकता पैसे लेने से `क` से और `ख` को वोट देने के लिए | लेकिन तब एक बयान आता है “ मतदाता अपना वचन/वादा रखते हैं ”| अभी दोनों बयान सही नहीं हो सकते |
4.) और अंत में, मैं विनती करता हूँ सभी से एक प्रश्न पूछने के लिए जो ये दावा करते हैं “ `य` प्रतिशत भारतीय मतदाता अपने वोट बेचते हैं “| उनसे पूछें,”कितने प्रतिशत आपके अनुसार फैसले बेचते हैं”, “कितने प्रतिशत मीडिया मालिक समाचार बेचते हैं” और “कितने प्रतिशत बुद्धिजीवी महत्वपूर्ण सत्य को छिपाते हैं ?” क्या ये `य` से अधिक है या `य` से कम है? आप देखेंगे कि जो हम आमजन पर दोष लगाते हैं वोट बेचने के लिए , मना कर देते हैं आमजन और विशिष्ट वर्ग के इमानदारी के स्तर के बीच तुलना करने के लिए |