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मुख्यमंत्री
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मुख्यमंत्री, राज्य के नागरिकगण
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प्रधानमंत्री, भारत के नागरिक
जनता की आवाज़(सी वी )1
जिला कलेक्टर(डी सी)
जनता की आवाज़(सी वी )2
तलाटी यानि पटवारी/लेखपाल
(22.3) कोरोनर्स जांच / इनक्वेस्ट (अर्थात कोरोनर की अदालत अथवा कोरोनर की जूरी) (कोरोनर= अपमृत्यु का कारण पता करनेवाला अफसर = मृत्यु समीक्षक ) |
क्यों पश्चिमी देशों की पुलिस ,भारत की पुलिस से कम भ्रष्ट और अत्याचारी है? आइए, इस प्रश्न को दूसरे तरीके से पूछते हैं – पश्चिमी देशों की पुलिस कब से और क्यों भ्रष्टाचार और अत्याचार कम करने पर मजबूर/बाध्य हुई?
लगभग वर्ष 800 ईस्वी में इंग्लैण्ड के नागरिकों ने राजा को मजबूर कर दिया कि जब कोई पुलिसवाला किसी आम आदमी की मौत अथवा किसी बड़े अपराध में सहभागी हो तो वे हर बार क्वेस्ट/जांच करवाएं । मौत की घटना होने पर जांच अनिवार्य था और अन्य प्रकार के आरोपों जैसे पीटने या घूसखोरी के मामले में यह वैकल्पिक था/जरूरी नहीं था। यह जांच राजा के अधिकारियों द्वारा की जाती थी जिनका लगभग हमेशा ही स्थानीय पुलिस प्रमुख अथवा अन्य पुलिसवालों के साथ गठजोड़ होता था और जांच तो केवल दिखावा मात्र हुआ करता था। यह जांच/इन्क्वेस्ट कोरोनर इनक्वेस्ट कहलाती थी जिसमें कोरोनर शब्द का अर्थ मुकूट अर्थात राजा होता था।
यह स्थिति आज की स्थिति की ही तरह थी।
आज हमारे देश में,लगभग हर मामले में ही, जब पुलिस हिरासत में मौत होती है तब मजिस्ट्रेट अथवा उससे ऊंचे पद के प्राधिकारी जैसे जिला जज द्वारा अथवा कभी-कभी सेवानिवृत्त/रिटायर्ड जजों के आयोग द्वारा जांच की जाती है लेकिन इन जांचों के प्रभारियों का अकसर भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के साथ सांठ-गाँठ/मिली-भगत होता है और इसलिए कुछ भी खास नतीजा नहीं आता।
इंग्लैण्ड के सच्चे कार्यकर्ताओं ने यह महसूस किया कि यदि जांच की अगुआई राजा द्वारा नियुक्त अधिकारी करते हैं तो ये जांच दिखावा मात्र से ज्यादा कुछ नहीं होती है। इसलिए लगभग वर्ष 950 ईस्वी. में कार्यकर्ताओं ने राजा को परिवर्तन के लिए मजबूर कर दिया – जिले के वयस्क लोगों में से क्रमरहित तरीके से चुने गए 6 से 12 नागरिक प्रश्न पूछेंगे और निर्णय लेंगे/फैसला करेंगे। जूरी-मंडल/जूरर्स में से प्रत्येक सदस्य आरोपी पुलिसवालों के कार्यों पर तीन में से एक फैसला देगा – न्यायोचित/न्यायसंगत, क्षमायोग्य अथवा आपराधिक। यदि जूरी-मंडल/जूरर्स उसकी कार्रवाई को आपराधिक ठहरा देता है तो लगभग हर मामले/मुकद्दमें में उन्हें हटा दिया जाता था और इसके बाद की सुनवाई में कारावास/जेल की सजा के बारे में निर्णय/फैसला किया जाता था। सजा का निर्णय अगली औपचारिक सुनवाई द्वारा किया जाता था। जांच/इनक्वेस्ट में जूरी-मंडल/जूरर्स को प्रश्न पूछने की अनुमति होती थी और किसी भी नागरिक को बोलने का अधिकार होता था, चाहे वह सीधा गवाह न भी हो, तो भी। दूसरे शब्दों में इंग्लैण्ड में वर्ष 950 ईस्वी. के आसपास कोरोनर्स जांच/इनक्वेस्ट किसी क्राउन/राजा द्वारा की जानेवाली जांच नहीं रह गई थी बल्कि यह नागरिकों द्वारा की/करवायी जाने वाली जांच हो गई थी। यह नागरिकों की जांच पुलिसवालों के व्यवहार में परिवर्तन लाने का मोड़ / टर्निंग प्वाइन्ट था।
अब यह पुलिसवालों के लिए संभव नहीं रह गया था कि वे जांच प्रभारी अथवा उनके रिश्तेदारों के साथ सांठ-गाँठ/मिली-भगत कायम कर लें क्योंकि ये प्रभारी हजारों या लाखों जनसंख्या में से क्रमरहित तरीके से(रैंडमली) चुने गए 12 नागरिक थे। इसलिए पुलिसवाले किसी प्रकार का अत्याचार करने से पहले 10 बार सोचते थे और प्रभारी अब उनपर वैसी दया नहीं दिखलाया करते थे जो वे सांठ-गाँठ/मिली-भगत हो जाने के बाद दिखलाते थे।
‘नागरिकों द्वारा जांच’ की इस प्रक्रिया के बारे में भारत के बुद्धिजीवी लोग क्या कहते हैं? देखिए, भारत के बुद्धिजीवियों ने इस प्रक्रिया के बारे में छात्रों को बताने से खुलेआम इनकार कर दिया है !! ताकि (कम से कम) कहीं वे इस प्रक्रिया को लागू करने की मांग ही न करने लगें। बुद्धिजीवी लोग ‘नागरिकों द्वारा जांच’ का विरोध करते हैं क्योंकि इससे विशिष्ट/ऊंचे लोगों की पुलिसवालों पर पकड़ ढ़ीली हो जाएगी और ऐसे में जब इन विशिष्ट/ऊंचे लोग को आम जनता पर जुल्म करवाने की जरूरत पड़ेगी तब पुलिसवाले आम जनता पर कम अत्याचार करेंगे। इसलिए बुद्धिजीवी लोग जो सभी विशिष्ट/ऊंचे लोगों के ऐजेंट/प्रतिनिधि हैं, उन्होंने इस ‘नागरिक द्वारा जांच’ प्रक्रिया का विरोध किया। आखिरकार, विकल्पों/पसंदों के बारे में सूचना/जानकारी मिलने पर इन पसंदों के लिए मांग उठ सकती है। और बदले में उन्होंने छात्रों के दिमाग में यह जहर भर दिया है कि भारतीय नागरिक जालसाज, अविवेकी, सनकी, मूर्ख, जातिवादी, साम्प्रदायवादी, असभ्य, अत्याचारी आदि होते हैं इसलिए इन्हें ऐसा कोई अधिकार/शक्ति नहीं दी जानी चाहिए। इसलिए यदि कोई छात्र इस प्रक्रिया के बारे में जानकारी प्राप्त कर भी लेता है तो भी बहुत संभावना है कि वह इसे नहीं मानेगा क्योंकि बुद्धिजीवियों ने उनके दिमागों में नागरिक विरोधी जहर काफी भर दिया है।