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अध्याय 21- कोर्ट में भ्रष्‍टाचार और भाई-भतीजावाद कम करने के लिए राइट टू रिकॉल ग्रुप / प्रजा अधीन राजा समूह के प्रस्‍ताव

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 कोर्ट में भ्रष्‍टाचार और भाई-भतीजावाद कम करने के लिए राइट टू रिकॉल ग्रुप / प्रजा अधीन राजा समूह के प्रस्‍ताव

 

(21.1) हमें कोर्ट में सुधार की जरूरत क्‍यों है?

जब नागरिकों ने 1951 में संविधान लिखा तो नागरिकों द्वारा सांसदों, उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीशों/सुप्रीम-कोर्ट-जज , भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई ए एस) के अधिकारियों आदि को साफ-साफ बता दिया गया था कि :-

  1. देश भारत के संविधान के अनुसार चलाया जाएगा।

  2. देश उस संविधान के अनुसार चलेगा जिसकी भारत के नागरिकों द्वारा अर्थ/व्‍याख्‍या की गई है

    1. उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश/सुप्रीम-कोर्ट-जज द्वारा संविधान की, की गई अर्थ/व्‍याख्‍या मंत्रियों द्वारा संविधान की, की गई अर्थ/व्‍याख्‍या से उपर होगी। लेकिन नागरिकों द्वारा संविधान की, की गई अर्थ/व्‍याख्‍या अंतिम होगी और सबसे उपर होगी और यह उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश की अर्थ/व्‍याख्‍या से भी उपर होगी।

संविधान-आम लोगों द्वारा अर्थ लगाया या सुप्रीम कोर्ट जज द्वारा?

संविधान, आम लोगों/जनसाधारण द्वारा अर्थ लगाया जाना चाहिए के दो दर्जन सुप्रीम कोर्ट जजों द्वारा?

पहले हम `संविधान की भूमिका/उद्देशिका` देखें | सभी संविधानों के सभी खंड के सभी अर्थ/व्याख्या संविधान की भूमिका/उद्देशिका के अनुसार होने चाहिए अन्यथा वो अर्थ/व्याख्याएं बुरी हैं |

भूमिका / उद्देशिका  हम, भारत के लोग,भारत को एक 1[संपूर्ण , प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी , पंथ-निरपेक्ष ,लोकतांत्रिक ,गणराज्य] बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :

सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक न्याय,विचार,अभिव्यक्ति विश्वास ,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और 2[राष्ट्र की एकता और अखंडता] सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए दृढसकल्प होकर

अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर,1949 ई.(मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी , संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं |

1.संविधान (बयालीसवां संशोधन )अधिनियम , 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य “ के स्थान पर प्रतिस्थापित |

2. संविधान (बयालीसवां संशोधन )अधिनियम , 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “राष्ट्र की एकता” के स्थान प्र प्रतिस्थापित |

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निम्निलिखित शब्द सबसे महत्वपूर्ण हैं –

1. हम, भारत के लोग (हम न्यायाधीश/जज नहीं)

2. लोकतंत्र

3. गणराज्य (न्यायतंत्र/जजों का ल्पतंत्र(कुछ ही लोगों का शाशन) नहीं)

4.अवसर की समता

दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र और गणराज्य वे प्रणाली/तंत्र हैं जिसमें आम लोग नियम को लागू करते हैं और आम लोग उनके अर्थ भी करते हैं संविधान सहित |

हमारा संविधान स्पष्ट कहता है भारत एक अल्पतन्त्र नहीं होगा दो दर्जन सुप्रीम कोर्ट या 800 सांसदों का |  संविधान “लोकतंत्र” और “गणराज्य” कहता है अपने भूमिका में |

इसीलिए , भूमिका ये स्पष्ट/साफ़ बताती है कि संविधान का अर्थ हम आम लोगों द्वारा है , ना कि सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा अर्थ लगाया हुआ |

अफ़सोस, संविधान में वो प्रक्रिया/तरीका का अभाव/कमी है जिससे आम लोगों का अर्थ/मतलब प्राप्त किया जा सकता है | लेकिन प्रक्रिया के अभाव से अधिकारों का अभाव का मायना/अर्थ नहीं है| इसका यही मायना है कि हमें एक अधिनियम/सरकारी आदेश की जरुरत है एक प्रक्रिया बनाने के लिए जिसके द्वारा संविधान का अर्थ लगाना `हम आम` लोगों द्वारा किया जा सके |  इसका ये मतलब नहीं कि `हम आम लोगों ` द्वारा अर्थ लगाना जजों द्वारा अर्थ लगाने से निम्न है |

और , ये शब्द “राजनैतिक न्याय “ और “समानता” से बताते (सूचित करते) हैं और सिद्ध करते हैं कि हर एक व्यक्ति का संविधान का अर्थ लगाना / व्याख्या का कुछ मूल्य होगा | इस कारण , यदि आम लोगों का बहुमत सुप्रीम कोर्ट के जजों के फैसले को असंवैधानिक  बोलते हैं, तो वो फैसला भले ही 24 सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा वैध घोषित किया गया था, फिर भी वो फैसला असंवैधानिक और व्यर्थ हो जाता है | दूसरे शब्दों में , सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य तभ है जब तक हम आम लोग उसे असंवैधानिक घोषित नहीं कर देते |

इन निर्णयों के कारण ही नागरिकों ने (संविधान की) प्रस्‍तावना में ही `लोकतंत्र`, `राजनीतिक न्‍याय` और `समानता` जैसे शब्‍द रखे और यही कारण था कि सांसदों, जिनसे नागरिकों का प्रतिनिधित्‍व करने की आशा की जाती थी, उन्‍हें उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश पर महाभियोग तक चलाने की शक्‍ति दे दी गई थी ताकि यदि कभी उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश संविधान की व्‍याख्‍या नागरिकों द्वारा की गई व्‍याख्‍या से अलग ढ़ंग से करें तो सांसद उच्‍चतम न्‍यायालय के न्‍यायाधीश पर महाभियोग(आरोप और हटाने की प्रक्रिया) चला सकें। भारत के संविधान में बहुत से विचार अमेरिका के संविधान और अमेरिका के समाज से लिए गए हैं। 1950 में जब नागरिकों ने भारत का संविधान लिखा तो उन्‍होंने लोकतंत्र शब्‍द का वह अर्थ लिया था जो उस समय अमेरिका/पश्चिम में प्रचलन में था। अमेरिका में लोकतंत्र शब्‍द का क्‍या अर्थ था? इसे समझने के लिए किसी व्‍यक्‍ति को अमेरिकी राज्‍यों के संविधान पढ़ने चाहिएं। उदाहरण के लिए मेरी लैण्‍ड के संविधान में यह साफ-साफ लिखा है कि जूरी/निर्णायक मण्‍डल के सदस्‍य अर्थात आम नागरिक कानूनों के साथ-साथ तथ्‍यों की भी व्याख्या/अर्थ करेंगे” अमेरिका के 20 और राज्‍यों के संविधानों में भी यही उल्‍लेख है और अमेरिका का सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी ऐसा ही करता है। दूसरे शब्‍दों में, 1950 में अमेरिका में लोकतंत्र शब्‍द का साफ-साफ अर्थ था एक ऐसा शासन जिसमें नागरिक कानून बनाते हैं और नागरिक ही किसी मुकद्दमें में कानूनों के साथ-साथ तथ्‍यों की भी व्‍याख्‍या/अर्थ करते हैं।

अब संविधान को उच्‍चतम न्‍यायालय और उच्‍च न्‍यायालय में टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया है(गलत अर्थ लगा कर बर्बाद कर दिया है)। मैं निम्‍नलिखित उदाहरण यहां पेश करूंगा। (अप्रैल 2, 2008 के रूप में लिंक करें) http://www.boloji.com/wfs2/wfs238.htm

“ यौन अपराधों के लिए फन प्‍लेस/मनोरंजक स्‍थल

मार्टी दम्‍पत्ति को दिसंबर, 2000 में तब रंगे हाथों गिरफ्तार किया गया था, जब वे गेटवे ऑफ इंडिया से उठाकर लाई गई अवयस्‍क लड़कियों के गन्‍दे चित्र उतार रहे थे। स्‍विटजरलैण्‍ड के इस दम्पत्ति के द्वारा अवयस्‍क लड़कियों के बाल यौन (शोषण) अपराध की भयानक कहानी मुंबई के एक सेशन कोर्ट को कैमरे के जरिए/इन कैमरा बताई गई। और मार्च, 2003 में अतिरिक्‍त सेशन जज मृदुला भटनागर ने इस दम्‍पत्‍ति को सजा सुनाई। उन्‍हें सात साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। इस सजा के खिलाफ उनकी अपील का ही नतीजा था कि मुंबई उच्‍च न्‍यायालय ने उनकी दलील को स्‍वीकार किया कि यदि इस मामले की सुनवाई तेजी से नहीं होती तो उनकी अपील 7 वर्षों के बाद भी सुनी नहीं जाती जो मुख्‍य तौर पर उनके सजा की अवधि थी। जज ने उन्‍हें प्रत्‍येक पीड़ित को एक-एक लाख रूपए का बड़ा हरजाना भरने का भी निर्देश दिया। उनके अपराध की गहराई का उल्‍लेख पूरे निर्णय/फैसले में कहीं पर भी नहीं किया गया था।