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(21.15) कु-बुद्धिजीवी लोग जजों में भ्रष्टाचार को समर्थन देंगे |
क्या बुद्धिजीवी लोग (कुबुद्धिजीवी लोग) जजों में फैले भ्रष्टाचार का विरोध करेंगे? देखिए, आज तक मुझे एक भी बुद्धिजीवी नहीं मिला है जिसने किसी निकम्में/काम न करने वाले जज का त्यागपत्र मांगा हो (एक दलित न्यायमूर्ति को छोड़कर)। यहां तक कि जब माननीय न्यायमूर्ति खरे ने निचली अदालत द्वारा अपराधी ठहराए गए बाल यौन शोषण अपराधी को जमानत दे दी तो जिन बुद्धिजीवियों से मैं मिला, उन्होंने यही कहा कि उन्हें फैसला पढ़ने का समय ही नहीं मिला और तब यह भी कहा कि वे न्यायमूर्ति खरे को पद पर बनाए रखने का समर्थन करते हैं और उन पर महाभियोग(राज्य के किसी प्रमुख विशेषतः सर्वप्रमुख शासनिक अधिकारी पर चलाया जानेवाला मुकदमा) लगाने/चलाने का विरोध करते हैं। यहां तक कि जब गाजियाबाद भविष्यनिधि घोटाले में अनेक न्यायमूर्तिगण दागी करार दे दिए गए तब भी बुद्धिजीवियों ने उन माननीय न्यायमूर्तियों पर महाभियोग लगाने/चलाने की मांग करने से मना कर दिया।
मेरे विचार में, न्यायतंत्र में बुद्धिजीवियों के बहुत ही अधिक नजदीकी रिश्तेदार होते हैं और यही कारण है कि वे न्यायतंत्र में भ्रष्टाचार चलते रहने देना चाहते हैं। और मेरे विचार से, बुद्धिजीवी लोग खुद/स्वयं भ्रष्ट होने के साथ-साथ कायर भी होते हैं। उदाहरण के लिए, मैं उस घटना का जिक्र करना चाहूंगा जो हस्तिनापुर के उच्चतम न्ययालय में लगभग 5000 वर्ष पहले घटी थी। जैसा कि डॉ. वेदव्यास कहते हैं – लगभग 5000 वर्ष पहले हस्तिनापुर उच्चतम न्यायालय/सुप्रीम कोर्ट तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति/प्रधान जज धृतराष्ट्र के अधीन था। धृतराष्ट्र ने अपने बेटे माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन को “राजकुमार मुख्य न्यायाधीश” नियुक्त कर दिया था। न्यायमूर्ति दुर्योधन ने हस्तिनापुर की उच्चतम न्यायालय की भरी सभा में ही माननीय न्यायमूर्ति भीष्म, माननीय न्यायमूर्ति धृतराष्ट्र, प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य और अन्य सभी लोगों के ठीक सामने ही एक आम औरत द्रौपदी का उत्पीड़न/ छेड-छाड़ किया।
प्रोफेस्सर. डॉ. द्रोणाचार्य उन दिनों हस्तिनापुर विश्वविद्यालय के कुलपति थे और अपने ही/निजी-धन से चल रहे कालेजों के मालिक थे। जब माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन ने द्रौपदी का उत्पीड़न/छेड-छाड़ किया तो प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य ने न्यायमूर्ति दुर्योधन का तनिक/थोड़ा भी विरोध नहीं किया। बाद में भी, इस घटना के बाद प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य ने माननीय न्यायमूर्ति धृतराष्ट्र से यह नहीं कहा कि वे माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन को बन्दी बना लें, नहीं तो वे त्यागपत्र देकर हस्तिनापुर से चले जाएंगे। प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य ने क्यों माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन का समर्थन किया(विरोध नहीं किया)? प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य की मंशाओं/उद्देश्यों पर एक सरसरी निगाह डालने से इस क्यों का उत्तर मिल जाएगा। प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य को चिन्ता थी कि धृतराष्ट्र उन्हें हस्तिनापुर विश्वविद्यालय के कुलपति के पद से हटा सकते हैं और उनके अपने/निजी धन से चलने वाले कॉलेजों की जांच करवा सकते हैं। इसके अलावा, उन्हें शायद यह भी चिन्ता थी कि न्यायमूर्ति धृतराष्ट्र एकलव्य वाली घटना के लिए उन्हें जेल भिजवा सकते हैं जिस घटना में उन्होंने एक आदिवासी बालक पर अत्याचार किए थे जो कि एक अवयस्क/नाबालिग बच्चा था। प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अपना अंगूठा काट देने को कहा था। उन्होंने एकलव्य के माता-पिता से पूछने तक की चिन्ता नहीं की जो कि अनिवार्य था क्योंकि एकलव्य अभी अवयस्क/नाबालिग बालक था। इसलिए पैसे की लालच और सजा पाने के डर से प्रो. डॉ. द्रोणाचार्य ने माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन द्वारा द्रौपदी के उत्पीड़न के कार्य का समर्थन किया और उसका विरोध नहीं किया और न ही न्यायमूर्ति दुर्योधन के हटाने/बर्खास्तगी की ही मांग की। अब ये लोग तो त्रेता युग के बुद्धिजीवी लोग थे। इसलिए कलयुग के बुद्धिजीवी लोग क्या करेंगे? वे इससे भी एक कदम आगे बढ़ेंगे और द्रौपदी पर ही आरोप लगा देंगे (कि उसी ने कुछ गलत किया होगा),माननीय न्यायमूर्ति दुर्योधन को बचाने के लिए । और ऐसी घटनाएं आज हम लोग घटता देख ही रहे हैं। जब न्यायाधीशों में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के बारे में पूछा जाता है तो आज के बुद्धिजीवी हम नागरिकों पर ही इस समस्या के लिए आरोप लगाते हैं !! और कुल मिलाकर कार्यकर्ताओं से मेरा यही कहना है कि न्यायमूर्तियों/जजों में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद कम करने के लिए आवश्यक/जरूरी कदम उठाने में वे बुद्धिजीवियों के भूमिका अदा करने अथवा उनके द्वारा कार्रवाई में हिस्सा लेने का इंतजार न करें। बुद्धिजीवी लोग वैकल्पिक ऐजेंडों पर काम करने के लिए जोर देते रहेंगे और जोर देकर कहते रहेंगे कि माननीय न्यायमूर्तियों के भ्रष्टाचार/भाई-भतीजावाद की समस्या का समाधान करने की कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। मेरे विचार में, अब समय आ गया है कि (कार्यकर्ता) उन बुद्धिजीवियों को खुले आम दरकिनार कर दें और केवल अपनी समझ से ही काम करें।
(21.16) न्यायालयों / कोर्ट में सुधार करने पर सभी दलों और बुद्धिजीवियों का रूख |
सभी वर्तमान दलों के नेताओं और सभी बुद्धिजीवी न्यायालयों/कोर्ट में सुधार किए जाने का एकदम से विरोध करने लगते हैं। हरेक दल के नेताओं ने न्यायालयों/कोर्ट की संख्या बढ़ाने से मना कर दिया है। वे जूरी प्रणाली(सिस्टम) का खुलेआम विरोध करते हैं और जोर देकर कहते हैं कि फैसले केवल जजों द्वारा ही किए जाने चाहिएं क्योंकि आम लोग मूर्ख/अल्पबुद्धि होते हैं । वे ऐसी प्रक्रियाओं को लागू करने का विरोध करते हैं जिनमें हम आम लोग जजों को हटा/बदल सकें। सभी पार्टियों के नेताओं ने न्यायालय में भाई–भतीजावाद और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर चर्चा/ वादविवाद तक करने से मना कर दिया है, उनका समाधान करना तो दूर की बात है। हम लोग सभी नागरिकों से अनुरोध/प्रार्थना करते हैं कि वे अपनी-अपनी पार्टी के प्रिय नेताओं से न्यायालयों/कोर्ट की संख्या कम होने, जजों में भाई – भतीजावाद, जजों में भ्रष्टाचार, आदि मुद्दों पर प्रश्न पूछें और तब यह निर्णय करें कि क्या वे(नेता) वोट दिए जाने के लायक हैं ?। और हम कार्यकर्ताओं से अनुरोध करते हैं कि वे बुद्धिजीवियों से इन मुद्दों पर प्रश्न पूछें और निर्णय करें कि क्या वे(बुद्धजीवी) मार्गदर्शक बनने के योग्य हैं ?
यदि एक जज एक साल में 200 मामलों में अधिकतम फैसला दे सकता है , तो हम को 3,00,00,000/200 = 1,50,000 अधिक जज चाहियें सभी मामलों को एक वर्ष/साल में निबटाने के लिए(जो एक काफी लंबा समय है) | और वर्त्तमान मामलों दर के अनुसार हमें 1,00,000 और जज चाहिए | और जैसे मामलों के फैसले आना शुरू होंगे, यह माने कि वे न्यायपूर्वक/उचित हों, तो अपराध दर और मामले के भार में कमी आने लगेगी | तो फिर 3-5 साल पश्चात, कोर्ट की संख्या जिसकी हमें जरुरत है, कम हो जायेगी | लेकिन निकट भविष्य में ,हमारे पास 2-3-4 सालों के लिए 1,50,000 से 2,00,000 (डेढ़ से दो लाख ) जज होना आवश्यक है |