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लेकिन कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं को इससे ठीक विपरित/उल्टा ही करना चाहिए – उन्हें अपना समय और प्रयास कानून-ड्राफ्टों के प्रचार-प्रसार में लगाना चाहिए न कि किसी आईकन /`निर्मित आदर्श प्रतिनिधि` के प्रचार में। क्योंकि ऑइकन/`निर्मित आदर्श प्रतिनिधि` बाद में ब्लैकमेल और धमकी का शिकार बन सकते हैं और उन्हें कार्यकर्ताओं को धोखा देने पर मजबूर किया जा सकता है। जबकि क़ानून-ड्राफ्ट को कोई भी ब्लैकमेल नहीं कर सकता। और कोई क़ानून-ड्राफ्ट कभी भी कार्यकर्ताओं की पीठ में छुरा नहीं घोंप सकता या उन्हें धोखा नहीं दे सकता।
(16.7) “आपका प्रस्ताव असंवैधानिक है” के तर्क से निपटने के लिए क़ानून-ड्राफ्ट एकमात्र रास्ता है |
जब भी कभी कोई जनता के हित के प्रस्ताव जैसे प्रजा अधीन – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश/जज अथवा प्रजा अधीन – प्रधानमंत्री अथवा नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम.आर.सी.एम.) आदि बनाता है तो बुद्धिजीवी तुरंत ही यह कहने लगते हैं कि “प्रजा अधीन–उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश/सुप्रीम कोर्ट जज असंवैधानिक है” अथवा “ प्रजा अधीन – प्रधानमंत्री असंवैधानिक है” अथवा “नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम.आर.सी.एम.) असंवैधानिक है” आदि आदि। अब इन बुद्धिजीवियों के पास अपनी वाकपटूता और वाणीचातुर्य का प्रयोग और सुधार करने के लिए हर दिन 12 घंटे का समय होता है। उन्हें (वाकपटूता और वाणीचातुर्य के सिवाय) बिना कुछ किए वेतन मिलता रहता है, जबकि हम कार्यकर्ताओं को वास्तविक अर्थव्यवस्था में काम करके वास्तविक/मेहनत का पैसा कमाना होता है इसलिए हमलोगों के पास कुतर्क करने का समय नहीं होता। इसलिए उनका यह कहना “आप जो भी कहते हो वह असंवैधानिक है” लोगों को चुप कैसे करवाया जा सकता है?
उन्हें चुप कराने का सबसे प्रभावकारी तरीका यह है कि उनके सामने कानून का क़ानून-ड्राफ्ट रख दिया जाए और उनसे पूछा जाए कि “कृपया दिखाइए कि इस क़ानून-ड्राफ्ट का कौन सा क्लॉज/ खण्ड असंवैधानिक है?” अब बेशक आपका क़ानून-ड्राफ्ट इस प्रकार से लिखा जाना चाहिए कि इसका हरेक क्लॉज/खण्ड संवैधानिक हो। लेकिन यदि आप इस बात का ध्यान रख लेते हैं तो बुद्धिजीवी लोग एक भी क्लॉज/खण्ड एक भी खंड नहीं बता पाएंगे जो असंवैधानिक हो। और इस तरह के मामले में श्रोतागण संतुष्ट हो जाएंगे कि आपका प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट संवैधानिक है और वह बुद्धिजीवी सचमुच झूठा है। पर यदि आपके पास कोई प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट नहीं है तो श्रोतागण का शक बना ही रहेगा।
(16.8) प्रारूप / क़ानून-ड्राफ्ट न देने के लिए गलत कारण / बहाने |
मैं पिछले दस वर्षों से अधिक समय से अनेक कार्यकर्ता नेताओं से मिलता रहा हूँ और उन्हें उनके द्वारा प्रस्तावित प्रारूप/ड्राफ्ट देने के लिए कहता रहा हूँ। वे उस प्रारूप/ड्राफ्ट को न देने के सैकड़ों बहाने बनाते हैं जिस पर वे दावा करते हैं कि वह गरीबी/भ्रष्टाचार कम कर देगा। मैने इन बहानों में से कुछ को संकलित किया है और उनका खंडन भी किया है ताकि संबंधित कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ता इन कारणों के खिलाफ तर्क-वितर्क कर सके और उनके कार्यकर्ता नेताओं को उनके ड्राफ्ट प्रस्तुत करने के लिए बाध्य कर सके :-
क़ानून-ड्राफ्ट न देने का बहाना 1 : भारत में आम लोग मूर्ख होते हैं और वे क़ानून-ड्राफ्ट को नहीं समझेंगे
खंडन : दवाओं/चिकित्सा-कार्य में रोगियों को हरेक दवा के हरेक ब्यौरे की पर्याप्त जानकारी नहीं दी जाती। लेकिन कम से कम उन सूचनाओं/जानकारियों को इंटरनेट पर डाला/रखा जाता है ताकि रोगी उसे देख सके। और कम से कम डॉक्टरों को तो हर दवा के हर ब्यौरे के बारे में बता ही दिया जाता है। यदि नागरिक मूर्ख और अल्पबुद्धि होते हैं (जैसा कि कार्यकर्ता नेता कहते हैं) तो आप इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि आप नागरिकों को दिए जाने वाले अपने भाषणों में क़ानून-ड्राफ्ट के विस्तृत ब्यौरे को शामिल न करें। और क्या आप अपने इन क़ानून-ड्राफ्ट के बारे में अपने कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं को तनिक भी बताते हैं? यदि नहीं, तो क्या आप यह भी दावा करते हैं कि आपका कार्यकर्ता भी मूर्ख है और कानून-ड्राफ्टों को समझने में असमर्थ है?
क़ानून-ड्राफ्ट न देने का बहाना 2 : प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट व्यर्थ/बेकार हैं
खंडन : भारत सरकार द्वारा 1940 के दशक के मध्य मेंराशन कार्ड प्रणाली के प्रारूपों के प्रकाशन के बाद ही भारत में भूखमरी कम हो गई। कई विचाराधीन कैदी रिहा हो गए (उन्हें) राहत देने वाले कानूनों के क़ानून-ड्राफ्ट के पारित होने के बाद ही । शिक्षा का प्रसार, शिक्षा को अधिक सुलभ बनाने वाले अनेक ड्राफ्टों/प्रारूपों (विधानों के साथ-साथ सरकारी अधिसूचना(आदेश)ओं) के पारित होने के बाद ही हुआ। मैं इन सभी हजारों उदाहरणों का सारांश इस प्रकार से प्रस्तुत कर सकता हूँ : एक गरीब आम आदमी का केवल एक ही “दोस्तों का समूह” होता है – सरकार में बैठे ईमानदार आदमी। और ऐसे ईमानदार अधिकारियों के पास गरीब (आम) आदमी की सहायता करने के लिए केवल एक ही साधन होता है- कानूनों के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट । यदि ये क़ानून-ड्राफ्ट खराब/कमजोर हैं तो कोई ईमानदार अधिकारी भी कुछ नहीं कर सकता। यदि ये क़ानून-ड्राफ्ट अच्छे/मजबूत हैं तो वह आम आदमियों की मदद/सहायता कर सकता है। इसलिए यदि एक कार्यकर्ता नेता यह कहता है कि प्रारूपों की जरूरत नहीं या ये बेकार होते हैं तो जानबूझकर या अनजाने में ही वह सफेद झूठ बोल रहा है। मैं कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं से अनुरोध करता हूँ कि वे ऐसे नेताओं को विस्तार से बताऐं कि क्यों क़ानून-ड्राफ्ट उपयोगी, हानिरहित और बहुत जरूरी भी हैं।
क़ानून-ड्राफ्ट न देने का बहाना 3 : ड्राफ्टों से विरोधियों को कमियां ढ़ूढ़ने का अवसर मिल जाता है
खंडन : पहली बात यह है कि कमियां होनी ही नहीं चाहिएं। और यदि विपक्ष कमियां निकालता है तो वह नागरिकों का भला ही कर रहा है – क्योंकि तब क्या होगा यदि कमियों वाला क़ानून-ड्राफ्ट पारित हो जाए? इसलिए कुल मिलाकर, प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट अवश्य दिए जाने चाहिएं ताकि चाहे सही हों या गलत, विपक्षी लोग कमियां निकाल/ढ़ूंढ़ सकें।
क़ानून-ड्राफ्ट न देने का बहाना 4 : क़ानून-ड्राफ्ट लिखना कानून विभाग का काम है
खंडन : यह एक सफेद झूठ है। कोई भी व्यक्ति क़ानून-ड्राफ्ट लिख सकता है। संविधान में ऐसा कोई अनुच्छेद नहीं है जो यह कहता हो कि केवल कानून विभाग ही प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट लिख सकता है। वास्तव में, कोई भी सांसद क़ानून-ड्राफ्ट लिख सकता है और इसे ‘निजी सदस्य का विधेयक’ (प्राइवेट मेंम्बरर्स बिल) के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। और कोई भी नागरिक किसी सांसद से अनुरोध कर सकता है कि वह उसके क़ानून-ड्राफ्ट को ‘निजी सदस्य विधेयक’ (प्राइवेट मेंम्बरर्स बिल) के रूप में प्रस्तुत कर दे। वास्तव में, यह हरेक नागरिक या कम से कम किसी जागरूक नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वह कानून-ड्राफ्टों को बदलने में सक्रिय होकर रूचि ले।