व्यापक जन-आन्दोलन में, नागरिक जीतने-योग्य उम्मीदवार की ओर नहीं देखा करते। इसलिए इस बात की बहुत संभावना/उम्मीद होती है कि एक अच्छे क़ानून-ड्राफ्ट की ओर नागरिकों का ध्यान जाएगा।
चुनाव-मात्र तरीके में समय ज्यादा लगता है।
व्यापक जन-आन्दोलन के तरीके में समय कम लगता है। कैसे, मैं यह विस्तार से बाद में बताउंगा।
चुनाव-मात्र तरीका उन्हें बिक जाने और नियंत्रण हाथ में रखने की स्थितीय लाभ/ताकत देता है।
व्यापक जन-आन्दोलन उन्हें इस प्रकार की न तो कोई स्थितीय लाभ/ताकत देता है और न ही बिक जाने का अवसर ही देता है।
चुनाव-मात्र का तरीका नागरिकों का कम समय लेता है – पांच वर्षों में केवल 30 मिनट का समय। लेकिन उन्हें शायद ही कोई लाभ होता है। लेकिन नागरिकों को परिवर्तन लाने के लिए 5 वर्ष, फिर 5 वर्ष और फिर 5 वर्ष का इंतजार करते रहना पड़ता है।
व्यापक जन-आन्दोलन में ज्यादा समय लगता है – प्रति व्यापक जन-आन्दोलन प्रति नागरिक कुछ दिनों का समय। लेकिन उन्हें ही सबसे ज्यादा लाभ भी मिलता है और उन्हें 5 वर्ष और यहां तक कि 5 दिन का भी इंतजार नहीं करना पड़ता।
चुनाव के बाद, नए-नए चुनकर आए सांसद/विधायक बिक जाते हैं और इस प्रकार बहुत ही थोड़ा परिवर्तन/बदलाव आ पाता है। हर चुनाव का मतलब 5 और वर्षों की बरबादी ही है।
व्यापक जन-आन्दोलन में, नागरिकों और कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं को 5 वर्षों का इंतजार करने की जरूरत नहीं होती। वे बिना इंतजार किए ही पूरे समय (5 वर्ष) काम कर सकते हैं।
(17.3) क्यों व्यापक (फैला हुआ) जन-आन्दोलन कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव के तरीके की तुलना में कम समय लेने वाला होता है? |
चुनाव बनाम व्यापक जन-आन्दोलन में निम्नलिखित विशेष तुलनात्मक गुण होते हैं :-
किसी व्यापक जन-आन्दोलन में कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ता को चुनावों की तुलना में कम समय लगाने की जरूरत होती है। व्यापक जन-आन्दोलन में नागरिकों को कुछ दिनों का समय देने की जरूरत पड़ेगी जबकि चुनाव में नागरिकों को केवल 30 मिनट का समय खर्च करना पड़ता है। लेकिन कार्यकर्ताओं को व्यापक जन-आन्दोलन खड़ा करने में कम समय की जरूरत पड़ेगी।
ऐसा क्यों है? कैसे क़ानून-ड्राफ्ट के लिए व्यापक जन-आन्दोलन में कार्यकर्ताओं का कम समय लगेगा, यह देखते हुए कि नागरिकों को ज्यादा समय देना पड़ता है? क्योंकि `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम) अथवा नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम. आर. सी. एम.) अथवा प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) जैसे कानून-ड्राफ्टों का समर्थन करने के लिए नागरिकों को संतुष्ट करना ज्यादा आसान है। और नागरिकों को किसी उम्मीदवार `कखग` को वोट देने के लिए संतुष्ट करना कठिन है । इसलिए किसी क़ानून-ड्राफ्ट के लिए समर्थन हासिल करना, किसी उम्मीदवार के लिए समर्थन हासिल करने से ज्यादा आसान है क्योंकि मान लीजिए, चुनाव में दो बड़े उम्मीदवार `क` और `ख` हैं । अब मान लीजिए एक ज्यादा अच्छा नया उम्मीदवार `ग` आ जाता है। उम्मीदवार `क` के मतदाता इस बात से ड़रेंगे कि उम्मीदवार `ग` को वोट देने से केवल उम्मीदवार `ख` को लाभ होगा। और उम्मीदवार ख के मतदाता इसके उल्टा सोंचेंगे(कि उम्मीदवार `ग` को वोट देने से `क` को लाभ होगा )। इसलिए जब तक नई पार्टी मतदाताओं को संतुष्ट/राजी नहीं कर देती कि उम्मीदवार `ग` निश्चित रूप से जीतेगा तब तक ग के लिए वोट प्राप्त करना कठिन है। इस बात को प्रस्तुत करने का कोई समझदारी भरा तरीका नहीं है कि `ग` की जीत तब हो जाएगी जब `ग` पहली बार चुनाव लड़े और उसे किसी प्रमुख/प्रभावशाली पार्टी का समर्थन न हासिल हो। इसलिए कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ता को अपना बहुत लम्बा समय रैलियों में, बैठकों में, नारेबाजी में, चुनाव जीतने का प्रत्यक्ष-ज्ञान/बोध/परशेप्शन पैदा करने के लिए दूसरे कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने में देना होगा। उदाहरण के लिए आरएसएस /बीजेपी को लोकसभा में 180 सीट प्राप्त करने के लिए 45 वर्ष लगे। क्यों? क्योंकि हर चुनाव में उन्हें चुनाव जीतने की स्थिति का प्रत्यक्ष-ज्ञान/परशेप्शन पैदा करना पड़ा ताकि वे 15 प्रतिशत वोट भी ले सकें और ऐसा प्रत्यक्ष-ज्ञान/परशेप्शन पैदा करने के लिए किसी व्यक्ति को अपने जीवन-काल से कहीं अधिक समय चाहिए जबकि क़ानून-ड्राफ्ट के लिए समर्थन पैदा करने के लिए कार्यकर्ताओं को जीतने की स्थिति का प्रत्यक्ष-ज्ञान/बोध/परशेप्शन पैदा करने की जरूरत नहीं पड़ती। कार्यकर्ताओं को केवल नागरिकों को संतुष्ट करना होता है कि प्रस्तावित क़ानून-ड्राफ्ट राष्ट्र के साथ-साथ उनका भी भला करेगा। यह सबसे बड़ा समय-बचत करने वाला तरीका है। एक कनिष्ठ/छोटा कार्यकर्ता अपनी स्थिति में, अभी हो सकता है इसका अनुभव नहीं कर पाये । लेकिन चुनाव जीतने की स्थिति के लिए प्रत्यक्ष-ज्ञान/बोध/परशेप्शन पैदा करना सबसे ज्यादा समय लेने वाला कार्यकलाप है। जीतने का प्रत्यक्ष-ज्ञान/बोध/परशेप्शन पैदा करने के लिए कई घंटों तक हल्ला के साथ प्रचार करने का समय लगता है। यदि क़ानून-ड्राफ्ट वास्तव में नागरिकों के तत्काल और मुख्य हित में है, तब यह धारा के साथ तैरने के समान है, धारा के विपरित नहीं।
साथ ही, अधिकांश नागरिक ठीक ही यह मानते हैं कि ज्यादातर नए सांसद चुने जाने के बाद उतने ही भ्रष्ट हो जाएंगे जितने वर्तमान सांसद हैं। इसलिए किसी कार्यकर्ता को नागरिकों को यह समझाने में कई घंटों का समय देना पड़ेगा कि उनका उम्मीदवार `क` बाकी उम्मीदवारों से “अलग” है। एक अविवेकपूर्ण और साबित न किए जाने योग्य बात के लिए किसी को संतुष्ट करने के कार्य में हमेशा घंटों का समय लगता है जबकि सही विचार के बारे में संतुष्ट करने के कार्य में कम समय लगता है और कई घंटों का समय इसके बाद भी बेकार हो जाता है क्योंकि नागरिक मूर्ख नहीं होते कि वे गलत विचार को स्वीकार कर लें।
यह भी ध्यान दें कि कानून-ड्राफ्टों (जैसे `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम) प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट ) के लिए व्यापक जन-आन्दोलन में कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं को `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम), नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम. आर. सी. एम.), प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) आदि कानूनों को नागरिकों और साथी कार्यकर्ताओं को समझाने में समय देना पड़ता है। इससे कार्यकर्ताओं और नागरिकों के सोचने की बौद्धिक क्षमता में सुधार होता है। सूचना/जानकारी के आदान-प्रदान से कार्यकर्ताओं के साथ-साथ नागरिकों के बौद्धिक स्तर में सुधार होता है जबकि रैलियों में जाने, बैठकों में भाग लेने, जिनमें एक समान बात ही हमेशा दोहराई जाती है, और नारेबाजी आदि में समय और पैसे की बरबादी है। इसलिए, जीतने का प्रत्यक्ष-ज्ञान/बोध बनाने के लिए कनिष्ठ/छोटे कार्यकर्ताओं को रैलियों आदि बिना दिमाग के कार्यकलापों में कई घंटों और कई दिनों तक समय बरबाद करना पड़ता है।