नागरिक प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों को उनकी इच्छा के विरूद्ध `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम) पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालने की ताकत रखते हैं और साथ ही प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बहुत ही कमजोर लोग होते हैं। उनमें इतनी भी ताकत नहीं होती कि वे कुछ लाख नागरिकों के खिलाफ भी विरोध नहीं झेल सकें। वास्तव में हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इतने कमजोर हैं कि वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भी ना नहीं कह सकते। और पाकिस्तान जैसे छोटे देश भी खुलेआम उनका मजाक उड़ाते हैं। निश्चित रूप से हम नागरिकगण इतने शक्तिशाली तो हैं ही कि ऐसे कमजोर प्रधानमंत्री को कागज के एक टूकड़े पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दें।
सिद्धांत की बात छोड़ दें, मैं आपको कुछ वास्तविक उदाहरण देता हूँ कि आन्दोलन कितने सफल रहे हैं –
1. वर्ष 1974 में गुजरात में लगभग 50000 छात्रों ने उस समय के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल से त्यागपत्र देने की मांग की और कई लाख नागरिकों ने उनका समर्थन किया और बाद में छात्रों ने प्रत्येक /हरेक विधायक के त्यागपत्र की मांग की। कुछ महीनों के भीतर मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया। हरेक विधायक ने भी ऐसा ही किया। नागरिकों का दबाव इतना तीव्र होता है कि मुख्यमंत्री और विधायकों को न चाहते हुए भी ऐसा काम करना पड़ा। इसलिए, यह नागरिकों के लिए संभव है कि वे मुख्यमंत्री, विधायकों को `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत / प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम)` क़ानून-ड्राफ्ट पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करना तो भूल जाइए, त्यागपत्र तक देने को बाध्य कर सकते हैं।
2. 1984 में गुजरात में गुजरात के कुछ छात्रों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी के त्यागपत्र की मांग की और कई लाख नागरिकों ने उनका समर्थन किया। यह विरोध कई महीनों तक चला। अंत में मुख्यमंत्री ने त्यागपत्र दे दिया। निश्चित रूप से मुख्यमंत्री ने अपनी मर्जी से त्यागपत्र नहीं दिया। नागरिकों का दबाव इतना था कि मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा। इसलिए यह नागरिकों के लिए संभव है कि वे मुख्यमंत्री व विधायकों को `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करना तो भूल जाइए, त्यागपत्र तक देने को बाध्य कर सकते हैं।
3. 1972 में देवी इंदिरा गाँधी ने आपातकाल समाप्त की । इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि जेलों में सभी उम्र के कार्यकर्ता भरे पड़े थे । कार्यकर्ताओं से पूरी तरह भरा हुआ कोई भी जेल किसी जेलर और प्रधानमंत्री के लिए बुरे सपने की तरह होता है। क्यों? क्योंकि पुलिस और कैदी का अनुपात बहुत घट जाए तो कैदी अन्दर से जेल को तोड़ने का साहस कर सकते हैं। अब यदि पुलिसवालों ने हत्यारों, बलात्कारियों अथवा चोरों को जेल के अन्दर गोलियों से भून दिया तो नागरिकगण उनका समर्थन करेंगे। लेकिन यदि पुलिसवालों ने कार्यकर्ताओं को गोलियों से भून दिया जिनका और कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है तो नागरिकगण सारे जेल को जलाकर खाक कर सकते हैं । और जब एक जेल टूट जाए तो इसकी खबर देश भर के जेलों में बन्द कैदियों को हिम्मत / ताकत दे देगी और कई अन्य जेल भी टूट जाऐंगे और जब जेल टूट जाएंगे तो स्थानीय पुलिस स्टेशनों के पुलिसवाले के पास आन्दोलनकारी कैदियों से निपटने का केवल एक ही रास्ता बच जाएगा – गोली मारना। क्योंकि आन्दोलनकारियों को बंदी बनाकर जेल में डालने के लिए कोई जेल ही नहीं बचेगा। चूंकि हजारों लोगों को गोली मार देना कोई विकल्प नहीं है इसलिए जब जेलें टूटेंगी तो पुलिसवालों के पास मूक दर्शक बनकर आन्दोलनकारियों को देखने के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाएगा। इससे नागरिकों की हिम्मत बढ़ जाएगी और अधिक से अधिक नागरिक आन्दोलनकारी बन जाऐंगे और आन्दोलन बढ़ेगा। देवी इंदिरा गाँधी को पूर्वानुमान हो गया कि अब जेलें टूट सकती हैं और यदि ऐसा हुआ तो उनके खिलाफ आन्दोलन जंगल की आग की तरह भड़क जाएगा। इसलिए कुल मिलाकर यह आन्दोलन अथवा आन्दोलन का डर ही था जिसने देवी इंदिरा अम्मा को आपातकाल समाप्त करने के लिए राजी कर दिया।
4. एक छोटे उदाहरण के रूप में, वर्ष 1991 में छात्रों के आन्दोलन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी. पी. सिंह को त्यागपत्र देने के लिए मजबूर करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इसलिए मैंने दो राष्ट्रीय उदाहरण और दो गुजरात-स्तरीय ठोस उदाहरण देकर यह दर्शाया है कि नागरिकगण प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को उनकी इच्छा के विरूद्ध भी कार्य करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। कोई व्यक्ति भारत के अन्य/दूसरे राज्यों के अनुभव भी इसमें जोड़ सकता है। जिला स्तर पर आन्दोलनों की सफलता तो और भी ज्यादा स्थापित बात है। वास्तव में, तथाकथित चुनाव की प्रक्रिया नियमित चलाई जाती है क्योंकि विशिष्ट वर्ग/उच्च वर्ग के लोग ऐसा करना आन्दोलन से बचने के लिए एक जरूरी शर्त मानते हैं। दूसरे शब्दों में, एक मात्र कारण कि चुनाव क्यों होते हैं – यह केवल आन्दोलनों का डर होता है।
इसलिए, जनता की आवाज-पारदर्शी शिकायत प्रणाली(सिस्टम) के लिए आन्दोलन कैसे शुरू किया जाए? यह एक आसान काम तो है, लेकिन इसमें काफी काम करना होगा। बुद्धिजीवी लोग यह दावा करते हैं कि नागरिक मूर्ख होते हैं और वे जागरूक नहीं होते, लेकिन ये बुद्धिजीवी लोग झूठे हैं। नागरिकगण बहुत ज्यादा समझदार हैं और अपने हितों के लिए जागरूक भी होते हैं – उनके पास केवल उन तरीकों और साधनों की जानकारी नहीं है कि कैसे पश्चिमी देशों के लोगों ने अपनी इस समस्या का समाधान किया और किन प्रारूपों/ड्राफ्टों के माध्यम से भारत में वे तरीके और साधन लागू किए जा सकते हैं। यदि एक बार नागरिकों को उनके हित के ड्राफ्टों की जानकारी मिल जाए तो उनके अपने हित ही उन्हें इसके(`जनता की आवाज़`पारदर्शी शिकायत प्रणाली(सिस्टम)) लिए कार्रवाई करने की प्रेरणा दे देंगे। उन्हें इसके लिए बताना नहीं पड़ेगा और न ही कोई जोर-जबरदस्ती ही करनी पड़ेगी।
(14.4) जयप्रकाश नारायण वर्ष 1977 से पहले इस कानून को लागू कराने में असफल रहे थे। जनता की आवाज (पारदर्शी शिकायत प्रणाली (सिस्टम)) के लिए आन्दोलन कैसे सफल होगा? |
एक उचित प्रश्न जिसका सामना मुझे करना होता है, वह है : जयप्रकाश नारायण कांग्रेस नेताओं को इन कानूनों को लागू करने के लिए बाध्य करने में असफल रहे थे| इसीलिए `जनता की आवाज` पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम), प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार), नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम. आर. सी. एम.) प्रारूपों/ड्राफ्टों के समर्थकों कों ये क़ानून-ड्राफ्ट नागरिकों को बताने/सूचित करने की जरूरत है।