प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) समूह तथा सभी पार्टियों, प्रमुख बुद्धिजीवियों के बीच अंतर |
(11.1) हम अधिकांश दलों और अधिकांश बुद्धिजीवियों से पूरी तरह अलग हैं । मुख्य अंतर इस प्रकार है |
प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) समूह के हमलोगों का क्या कहना है |
सभी दलों के सांसदों और भारत के प्रमुख बुद्धिजीवी लोगों का क्या कहना है |
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1. खनिज के खान और सरकारी प्लॉट के स्वामित्व / मालिकी के संबंध में |
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प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) समूह इस बात पर बल देता है की सभी खान और सरकारी प्लॉट हम भारतीयों (हम नागरिकों) के हैं न कि भारत राज्य के। और इसलिए हम इस बात पर जोर देते हैं कि हम नागरिकों और हमारी सेना को सारा किराया मिलना चाहिए। और भी सीधे शब्दों में, प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को बदलने का अधिकार) समूह पूरी तरह यह मानती है कि नागरिकों को भारत सरकार के प्लॉटों जैसे कि आईआईएमए प्लॉट, जेएनयू प्लॉट, हवाई अड्डा प्लॉट इत्यादि से किराया अवश्य मिलना चाहिए। |
कांग्रेस, बीजेपी, सीपीएम और भारत के सभी बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों ने कहा है कि सभी खान और सरकारी प्लॉट भारत “राज्य” की संपत्ति है और आम भारतीयों का उनपर कोई स्वामित्व व नियंत्रण नहीं होगा। और उन्होंने आईआईएमए, जेएनयू, और हवाई अड्डों के प्लॉटों पर भारतीयों (नागरिकों) को किराया देने से सीधे तौर पर इनकार कर दिया है। |
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2. हमलोग लोकतंत्र के पक्षधर हैं, सभी वर्तमान पार्टियों के सांसद और भारत के प्रमुख बुद्धिजीवी फासीस्टवादी हैं। | |||||||||
`नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी `(एमआरसीएम) समूह के हम लोग राजनीतिक परिदृश्य में अकेले समूह हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि हम आम लोगों को विधायी शक्तियाँ प्राप्त करनी होगी और हम आम लोगों के पास अधिकारियों/ जजों को हटाने और बदलने की शक्तियाँ होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हमलोग लोकतंत्रवादी हैं। |
सभी वर्तमान दल और भारत के सभी प्रमुख बुद्धिजीवी लोग हम आम आदमी और मतदाताओं को मूर्ख समझते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि हम आम लोगों के हाथों में कानून बनाने में कोई राय/मत नहीं होना चाहिए और अधिकारियों, पुलिसवालों, न्यायाधीशों की नियुक्तियों / बदलाव का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। और हम आम लोगों का न्यायालय में फैसला लेने में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। भारत के अधिकांश बुद्धिजीवियों की मानसिकता फासीस्टवादी है। और इसलिए वे दृढ़ता से जोर देते हैं कि प्रशासन के सभी विवेकाधिकार केवल मंत्रियों, आईएएस, आईपीएस अधिकारियों जजों व बुद्धिजीवियों के पास होने चाहिए। विवेकाधिकार की शक्तियों की बात तो छोड़ ही दीजिए, फासीस्टवादी वैसे भारतीय हैं जो जनता की आवाज(सूचना का अधिकार -2) पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली तक का विरोध करते हैं – और नागरिकों को केवल प्रधानमंत्री की वेवसाइट पर शिकायत दर्ज करने की ही छूट नहीं देते हैं। हम उनके फासीस्टवाद की निंदा करते हैं और वे हमारे लोकतंत्रवाद की निंदा करते हैं। |
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3. नागरिकों द्वारा संविधान की, की गई व्याख्या अंतिम होगी; सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा की गई व्याख्या अंतिम नहीं होगी | |||||||||
हमलोग भारत में एकमात्र समूह हैं जो इस बात पर विश्वास करते हैं कि हम भारत के नागरिकों द्वारा कि गई भारत के संविधान की व्याख्या अंतिम आवाज होगी और सुप्रीम-कोर्ट के दो दर्जन जज द्वारा संविधान की व्याख्या महत्वपूर्ण हो सकती है लेकिन अंतिम नहीं। हम इस बात पर सहमत हैं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की व्याख्या मंत्रियों की व्याख्या से उपर है और यह नागरिकों के लिए वास्तव में महत्वपूर्ण है कि वे इस बात का ध्यान दें । लेकिन यह अंतिम नहीं है, स्वयं हमारे संविधान में इसकी प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत एक लोकतंत्र और एक गणतन्त्र होगा जो स्पष्ट रूप से “नागरिक समीक्षा प्रणाली” का समर्थन करता है। इस प्रणाली में यह उल्लेख है कि नागरिकों द्वारा संविधान की, की गई व्याख्या अंतिम है और यह न्यायिक पुनर्विचार से उपर है। यही कारण है की हम निचली अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक निर्णायक मंडल (जूरी) प्रणाली पर जोर दे रहे हैं और नागरिक समीक्षा प्रणाली की माँग करते हैं जिसमें नागरिकगण उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा दिये गए निर्णयों की संवैधानिक वैधता पर हाँ/नहीं दर्ज कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, हम संवैधानिक लोकतंत्र पर विश्वास करते हैं। |
सभी मौजूद पार्टियों के सांसद और भारत के सभी प्रमुख बुद्धिजीवियों ने हमेशा नागरिक समीक्षा प्रणाली का विरोध किया है और निर्णायक मंडल (जूरी) प्रणाली का भी विरोध किया है। उन्होंने हमेशा जज सिस्टम का और न्यायतांत्रिक समीक्षा का समर्थन किया है। जबकि वर्तमान सभी पार्टियां और सभी बुद्धिजीवी इस बात पर जोर देते हैं कि सुप्रीम-कौर्ट के दो दर्जन जजों द्वारा संविधान की, की गई व्याख्या अंतिम होगी और हम आम लोगों की व्याख्या बेकार की बात मानी जाएगी। सभी दल और बुद्धिजीवी इस बात पर जोर देते हैं कि हम नागरिकों द्वारा की गई व्याख्या की अनदेखी की जानी चाहिए और सुप्रीम-कोर्ट के जजों पर हमारे हॉं/ नहीं की राय ली नहीं जानी चाहिए। और सभी बुद्धिजीवी इस बात पर जोर देते हैं कि सुप्रीम-कोर्ट द्वारा की गई व्याख्या आम लोगों पर मीडिया, शिक्षा और पुलिस और यदि जरूरत पड़ी तो सेना का प्रयोग करके निर्दयतापूर्वक और कठोरता से थोपी जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, वर्तमान सभी दल और बुद्धिजीवी संवैधानिक न्यायतांत्रिक फासीस्टवाद पर विश्वास करते हैं। . |
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4. सरकारी अधिसूचनाओं(आदेश) और सरकारी आदेशों, अध्यादेशों , के क़ानून-ड्राफ्ट का जनता के समक्ष प्रस्तुत करना जो देश की समस्याओं का समाधान कर सकें | |||||||||
हमलोग भारत में पहले और एकमात्र समूह हैं जो उन सरकारी अधिसूचनाओं(आदेश) के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट दिखलाते हैं जिसकी हम मांग करते हैं। हम लोगों से यह नहीं कहते कि वे हमपर विश्वास करें। हम लोगों से यह अनुरोध करते हैं कि वे हमारी सरकारी अधिसूचनाओं(आदेश) को पढ़ें और खुद निर्णय करें कि क्या ये अधिसूचनाएं(आदेश) ऐसी नहीं हैं जिनका समर्थन किया जाना चाहिए। इस प्रकार से एक नागरिक मतदाता को यह निर्णय करने का पूर्ण अधिकार होगा कि उन्हें हमारा समर्थन करना चाहिए या विरोध। |
हरेक समूह नीति बनाने के संबंध में वायदे करता है, लेकिन हर दल, सांसद और विधायक उस सरकारी आदेश के क़ानून-ड्राफ्ट प्रकाशित करने से मना कर देता है जो अपने वायदों को पूरा करने के लिए वे पारित करते । उनका उत्तर होता है,“ पहले आप हमारे पक्ष में मतदान करें और तब हम मंत्री बनने के बाद आपको प्रारूप(क़ानून-ड्राफ्ट ) दिखलाएंगे। ” अच्छा, प्रत्याशी महोदय, यदि प्रारूप(क़ानून-ड्राफ्ट ) निरर्थक और हम आम जनता के लिए कल्याणकारी न निकला तो ? उत्तर फिर से यही है ,“मुझपर भरोसा रखिए ” हम लोग आपको ऐसे अस्पष्ट और घुमाफिरा कर उत्तर नहीं देते।
श्रेणी: प्रजा अधीन |