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आम लोगों का सशस्त्रीकरण करना / आम लोगों को हथियार बनाने देना और रखने देना |
“क्योंकि भगत सिंह आम नागरिकों से आते हैं और यदि आम नागरिक बिना हथियार के हैं, तो बहुत कम उनमें से भगत सिंह बन पाएंगे | “
(29.1) आधुनिक भारत में हथियार रखने के अधिकार का इतिहास |
भारतीय इतिहास में पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त लोगों तक को भी यह पता नहीं है कि वर्ष 1931 में श्री सरदार वल्लभ भाई, जवाहर लाल नेहरू आदि ने कांग्रेस के करांची अधिवेशन में एक संकल्प पारित किया था जिसमें इन्होंने यह मांग रखी थी कि हथियार रखने के अधिकार को मौलिक (जरूरी / बुनियादी / मुख्य ) अधिकार बना दिया जाए। और इस करांची अधिवेशन के प्रारूप तैयार करने वालों में महात्मा गांधी खुद भी शामिल थे। यह मांग मांग-सह-वायदा था अर्थात महात्मा गांधी और सहयोगियों का भारत के लोगों से यह वायदा कि यदि और जब भी कांग्रेस सत्ता में आती है तो वे हथियार रखने के अधिकार को मौलिक अधिकार बना देंगे। मेरा मानना है कि मोहनभाई, वल्लभभाई, जवाहरभाई का इस वायदे को पूरा करने का तब कोई इरादा न था जब उन्होंने यह वायदा किया था। यह वायदा पूरा न करने के इरादे से ही किया गया था। उन्होंने यह वायदा सिर्फ इसलिए किया था कि श्री भगत सिंह जी ने यह विचार रखा था और यह (विचार) आम लोगों और सक्रिय कार्यकर्ताओं के बीच इतना लोकप्रिय हो गया था कि मोहनभाई और अन्य सभी लोगों के पास इसे अपने किताबों में दर्ज करने के अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था ताकि वे कार्यकर्ताओं के बीच अपनी पकड़ बनाए रख सकें। मोहनभाई और उनके साथी कभी भी सशस्त्र नागरिक समाज नहीं चाहते थे क्योंकि ब्रिटेन/इंग्लैण्ड और भारत के विशिष्ट/ऊंचे लोग जो मोहनभाई और उनके साथियों के प्रायोजक थे, वे सशस्त्र नागरिक समाज नहीं चाहते थे।
वर्त्तमान बुद्धिजीवी लोग हम आम लोगों को कमजोर बनाए रखने पर जोर देते हैं ताकि उनके प्रायोजक/उन्हें खिलाने वाले विशिष्ट वर्ग के लोग हम आम जनता को अपराधियों और पुलिसवालों के जरिए पीट सकें और उन्हें जवाबी कार्रवाई और रोके जाने का खतरा न हो। यदि हम आम लोगों के पास हथियार होते तो हम आम लोगों को चौतरफा मार मारना और हमसे ही पैसे भी ठगना असंभव हो जाता। इसलिए भारत के बुद्धिजीवियों ने छात्रों और सक्रिय कार्यकर्ताओं को समाचार-पत्रों और पाठ्यपुस्तकों के जरिए यह कभी नहीं बताया कि मोहनभाई और उनके साथियों ने वर्ष 1931 में हथियार रखने के अधिकार की मांग की थी और यह भी मांग की थी कि इसे मौलिक / मुख्य अधिकार बना दिया जाए। इसके अलावा, बुद्धिजीवियों ने गैर 80 जी कार्यकर्ताओं को यह कहा/बताया कि भारतीय आमलोग अविवेकी, मूर्ख, सनकी, हिंसक प्रवृत्ति वाले, आक्रमक आदि होते हैं और इसलिए भारत के आम लोगों के “हथियार” केवल नेलकटर/नाखून काटने वाला , तकली, चरखा, सच्चाई, अहिंसा, सत्याग्रह आदि होने चाहिएं।
भारतीय बुद्धिजीवियों की दोहरी बात/चरित्र पर ध्यान देना चाहिए। जब उनसे यह पूछा जाता है कि क्यों रूस और चीन की तरह की क्रांति यहां नहीं हुई ? तो वे कहते हैं कि भारतीय स्वभाव से ही अहिंसक और सहनशील होते हैं। और जब उनसे यह पूछा जाता है कि भारतीय आमलोगों के पास बंदूकें/हथियार क्यों नहीं होनें चाहिए? वे 180 डिग्री का (यू) टर्न लेते हुए/अपनी बात से पलटते हुए कहेंगे कि भारतीय आम लोग इतने आक्रमक और हिंसक होते हैं कि इन्हें बंदूकें बिलकुल भी नहीं दी जानी चाहिए। मैं उनसे इसपर बहस करता यदि मुझे थोड़ा भी लगता कि वे ईमानदार हैं।
(29.2) हथियार रखने के अधिकार को मौलिक ( जरूरी ) अधिकार और मौलिक (जरूरी ) कर्तव्य बनाएं |
हम ‘नागरिकों और सेना के लिए खनिज रॉयल्टी (एम.आर.सी.एम.)/प्रजा अधीन रजा समूह’ के सदस्यगण यह शपथ लेते हैं कि हम हथियार रखने को मौलिक अधिकार के साथ-साथ मौलिक कर्तव्य भी बनाएंगे अर्थात किसी व्यक्ति के लिए अपने घर में गैर-स्वचलित बंदूक और 240 बुलेट/गोली रखना जरूरी/अपेक्षित होगा। यह कर्तव्य शारीरिक रूप से सक्षम और 25 से 45 आयुवर्ग के सभी पुरूषों पर लागू होगा और महिलाओं के लिए इसे प्रोत्साहित किया जाएगा लेकिन यह अनिवार्य नहीं होगा। यह कर्तव्य स्विटजरलैण्ड के ही समान होगा, जहां 21 से 25 आयुवर्ग के पुरूषों के लिए घर पर बंदूक और 24 बुलेट/गोली रखना जरूरी होता है।
(29.3) आमलोगों का सशस्त्रीकरण- आम लोगों द्वारा शस्त्रों / हथियारों का 100 % स्थानीय उत्पादन और प्रयोग : लोकतंत्र की जननी |
लोकतंत्र अधिकांश युरोप में वर्ष 300 के आते आते अपना अर्थ खो चुका था। और यह लगभग वर्ष 900 में इंग्लैण्ड में पुन: प्रारंभ हुआ। इंग्लैण्ड में वर्ष 950 में राजा को एक प्रक्रिया लागू करनी पड़ी थी कि यदि कोई पुलिसवाला किसी नागरिक की मौत/हत्या में संलिप्त/शामिल पाया गया तो राजा के अधिकारी जिन्हें कोरोनर कहा जाता था, वे मतदाता सूची में से क्रमरहित तरीके से 7-12 नागरिकों को बुलाएगा । नागरिकों को पुलिसवालों से प्रश्न पूछने की अनुमति थी और पीड़ित के परिवार के सदस्यों आदि को अपने पक्ष की बात बताने का अधिकार था। जांच के अंत में, जूरी-मंडल/जूरर्स में से प्रत्येक सदस्य आरोपी अधिकारी के कार्यों पर तीन में से एक फैसला दिया करते थे – न्यायोचित, क्षमायोग्य अथवा आपराधिक। यद्धपि कोई स्पष्ट कानून नहीं था तथापि यदि जूरी-मंडल/जूरर्स बहुमत से कह देते थे कि “उस अधिकारी का आचरण/बर्ताव आपराधिक है” तो लगभग हर मामले/मुकद्दमें में उस अधिकारी को सेवा/नौकरी से हटा दिया जाता था।
अब प्रश्न उठता है कि वर्ष 950 में राजा ने इस प्रक्रिया को क्यों लागू करवाया? क्या उस समय के बुद्धिजीवियों की ऐसी कोई मांग थी कि सरकार में नागरिकों को भागीदारी दी जाए? नहीं। इसका कारण यह था कि उस समय के इंग्लैण्ड में बहुत से नागरिकों के पास हथियार हुआ करता था। राजा यह जान चुका था कि नागरिकों को सेना और पुलिस द्वारा अब और दबाया नहीं जा सकता है। और इसलिए नागरिकों को पुलिसवालों के विरूद्ध यह शक्ति मिल पाई।( अलग से: राजा ने इतने अधिक नागरिकों को हथियार बनाने और रखने दिया क्योंकि अरब सेना ने दक्षिण में स्पेन और पूर्व में तुर्की को जीत लिया था और इसलिए अरब सेना से लड़ने के लिए राजा और पुरोहितों के पास बड़ी संख्या में जनता को हथियारों से लैस करने के अलावा और कोई चारा/विकल्प नहीं बचा था।) तब बाद में लगभग 1100-1200 इस्वी में राजा को महा-अधिकारपत्र (मैग्ना कार्टा) पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश होना पड़ा। इस महा-अधिकारपत्र (मैग्ना कार्टा) में उसे यह स्वीकार करना पड़ा कि जूरी-मंडल की आज्ञा के बिना नागरिकों को न तो बंदी बनाया जाएगा और न ही उनपर किसी प्रकार का जुर्माना ही लगाया जाएगा। नागरिक और सामंत(नाईट्स) राजा को महा-अधिकारपत्र(मैग्ना कार्टा) पर हस्ताक्षर करने के लिए इसलिए विवश कर पाए कि बहुत बड़ी संख्या में नागरिकों के पास हथियार थे। इसके अलावा, वर्ष 1650 में राजा को फांसी दे दी गई जब उसने संसद की आज्ञा नहीं मानी। इससे पहले, वर्ष 1650 में संसद 5 प्रतिशत से भी कम जनता का प्रतिनिधित्व कर रही थी। लेकिन विशिष्ट वर्ग (संख्या में) जनसंख्या का 0.1 प्रतिशत से भी कम था। और निम्नतम वर्ग के 95 प्रतिशत लोग इन 0.1 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 5 प्रतिशत वालों के नजदीक थे और इसलिए उन्होंने 5 प्रतिशत वालों का साथ दिया। वर्ष 1650 में इंग्लैण्ड की संसद ने अपनी खुद की सेना बनाई और राजा की राजसी सेना को हरा दिया। राजा बन्दी बना लिया गया और संसद ने राजा को सजा सुनाने के लिए एक विशेष न्यायालय गठित करने का निर्णय लिया। जेनरल क्रॉमवेल, संसद की सेना का कमांडर था, उसने राजा-समर्थक सांसदों को संसद में प्रवेश करने से रोक दिया। राजा-विरोधी सांसदों ने 70 जजों वाला एक न्यायालय/कोर्ट स्थापित करने का संकल्प लिया !! और ये जज और कोई नहीं बल्कि राजा विरोधी सांसद ही थे। और इस न्यायालय/कोर्ट और इन सांसद-सह-जजों ने “न्यायपूर्ण और निष्पक्ष” सुनवाई के बाद वर्ष 1650 में राजा को फांसी देने का फैसला सुनाया। बाद में सांसदों ने उस राजा की प्रतिमा/मूर्ति को राजसी संग्रहालय में रखवा दिया। उस मूर्ति के नीचे यह लिखा था -“याद रखो”। मेरे विचार से, ये आने वाले समय के सभी राजाओं के लिए एक चेतावनी थी। लेकिन संसद सेना बना सकी थी, राजसी सेना को हरा सकी थी और राजा को फांसी दे सकी थी क्योंकि आम नागरिक पूर्ण से हथियारों से लैस थे/उनके पास भरपूर हथियार थे । एक शस्त्रविहीन नागरिक-समाज ऐसी लड़ाई नहीं लड़ सकता था।