सूची
- (2.1) यह बहुत ही रहस्य भरा प्रश्न है पर इसका उत्तर बहुत ही आसान है!!
- (2.2) राइट टू रिकॉल ( भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा निकालने / बदलने का अधिकार) और प्रजा अधीन राजा
- (2.3) प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल आधुनिक अमेरिका में
- (2.4) भारत में प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल का संक्षिप्त इतिहास
- (2.5) पूरे विश्व में प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल का संक्षिप्त इतिहास
- (2.6) आधुनिक भारत में राइट टू रिकॉल
- (2.7) भारत में राइट टू रिकॉल / प्रजा अधीन-राजा प्रणाली (सिस्टम) की संवैधानिक वैधता
- (2.8) क्या आधुनिक अमेरिका में राइट टू रिकॉल / भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा बदलने का अधिकार अथर्ववेद से आया ?
- (2.9) राइट टू रिकॉल की मेरी खोज और अथर्ववेद (सत्यार्थ प्रकाश)
अध्याय 2 – अमेरिकी पुलिस में भारतीय पोलिस से भ्रष्टाचार कम क्यों है?
(2.1) यह बहुत ही रहस्य भरा प्रश्न है पर इसका उत्तर बहुत ही आसान है!! |
आपने अमेरिका के अपने रिश्तेदार, मित्रों से यह अवश्य सुना होगा कि अमेरिका के पुलिस/कोर्ट में भ्रष्टाचार भारत के पुलिस/कोर्ट में भ्रष्टाचार से बहुत कम है | भारत के हरेक अनिवासी भारतीय ने इस पर पहले ही दिन से ध्यान दिया होगा | उदाहरण के लिए, जब मैं अमेरिका में था, उस समय मुझे ट्रैफिक के नियमों का उल्लंघन करने पर हवलदारों ने 5 बार रोका था। ट्रैफिक के नियमों को तोड़ने के लिए, हवलदारों ने मुझसे 3 बार अर्थदंड/जुर्माना लिया और 2 बार मुझे क्षमा किया, परन्तु एक बार भी उन्होंने संकेत तक नहीं दिया कि घूस लेने में उनकी थोड़ी भी रूचि है | क्यों ?
और यह आपके लिए अवश्य ही एक रहस्य होना चाहिए कि अमेरिका में पुलिस/जज भारत की तुलना में इतने कम भ्रष्ट क्यों है ? क्या अमेरिका की पुलिस/न्यायाधीश भारत की पुलिस/जज की तुलना में मुर्ख हैं कि वो अपने नागरिकों से घूस वसूल करने के चालाकी भरे तरीकों के बारे में नहीं सोच सकते ? नहीं, वे इतने भी मुर्ख नहीं हैं I क्या वे इतने डरपोक हैं कि वे नागरिकों के हाथ न मरोड़ सकें और उनसे घूस ना वसूल सकें? नहीं, वे उतने ही साहसी हैं जितने की भारत की पुलिस है – थोड़े भी कम नहीं | तो क्या अमेरिका के हर पुलिसवाले /जज लालच से परे हैं ? नहीं |
किसी भी राष्ट्र में ऐसा नहीं हो सकता की वहाँ के लाखों व्यक्तियों में से कोई भी लालची ना हो | तो क्या अधिक वेतन प्राप्त करना ही भ्रष्टाचार इतना कम होने का एकमात्र कारण है ? अच्छा तो मान लें कि हमने भारत में अपने पुलिसवालों/जजों के वेतन इस सप्ताह दोगुने कर दिए तो क्या वे हमें अगले सप्ताह से घूस में 10 प्रतिशत की छूट देंगे? उदाहरण के लिए, वर्ष 2009-2010 में सरकार ने सभी न्यायधीशों के वेतन तीन गुना कर दिए |
तो क्या जजों ने अपनी घूस खोरी में अगले दिन 10 प्रतिशत की भी छूट दी ? मेरा अनुमान है, नहीं | यदि भारत सरकार का कोई कर्मचारी यह सोचता है कि जितना वेतन उसे मिल रहा है उसे दोगुना कर दिया जाना चाहिए और इसके लिए उसे घूस लेने की जरूरत है। तो क्या वह 30 वर्ष के वेतन में आने वाले घूस के बराबर वेतन इकट्ठा करने के बाद घूस लेना बंद कर देगा? नहीं, उनमें से अधिकतर कभी नहीं बंद करेंगेI इस प्रकार, वेतन अवश्य ही एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर भारत और अमेरिका में भ्रष्टाचार के स्तर में बदलाव लाने हेतु कोई सबसे बड़ा कारक नहीं है। तो और क्या कारण हो सकता है ?
संस्कृति कारण नहीं है
क्या हमारी संस्कृति इसका कारण है? भारत के बहुत से बुद्धिजीवी (कु-बुद्धिजीवी?) के पास 4 अंकों का बौद्धिक स्तर (IQ) है और वे कहते है कि भारत में पुलिसवाले अधिक भ्रष्ट इसलिए हैं क्योंकि हम जनसाधारण अनपढ़ हैं, जागरूक नहीं हैं, हममें नैतिक सदाचार की कमी है, हमारी राजनीतिक संस्कृति बुरी है आदि |
दूसरे शब्दों में, 4 अंकों के बौद्धिक स्तर (IQ) वाले इन बुद्धिजीवियों के अनुसार, हम नागरिकगण पुलिस / न्यायाधीश के भ्रष्ट होने के जिम्मेदार हैं | 4 अंकों वाले बौद्धिक स्तर (IQ) के बुद्धिजीवियों द्वारा “पीड़ितों पर ही आरोप” लगाने वाले इन तर्कों को मैं सफ़ेद झूठ कहकर अस्वीकार करता हूँ | यह बात उसी तरह चुभनेवाली लगती है जैसे कोई कहे “बलात्कार के लिए औरतें जिम्मेदार हैं” |
यह तर्क कि “नागरिकों में जागरूकता नहीं है” या “नागरिकों की सभ्यता बुरी है” बिलकुल बकवास हैI यहाँ तक कि सबसे ज्यादा अशिक्षित व्यक्ति भी यह अच्छी तरह जानता है कि भ्रष्टाचार अनैतिक है और यह एक अपराध है | और सभी पुलिसवालों, न्यायाधीशों व मंत्रियों को यह अच्छी तरह पता है कि भ्रष्टाचार अनैतिक है, गैरकानूनी है। और यहाँ तक की जब अमेरिका में वर्ष 1800 में शिक्षा 5 प्रतिशत से भी कम थी तब भी वहाँ ऐसे भ्रष्ट पुलिस, न्यायाधीश आदि नहीं थे I इस मेरे विचार में कम शिक्षा कोई मुद्दा नहीं है। “नागरिकों में जागरूकता नहीं है” यह 4 अंकों वाले बौद्धिक स्तर (IQ) के बुद्धिजीवियों द्वारा गढ़ा हुआ बिलकुल बकवास है और यह कहना कि “नागरिकों की सभ्यता बुरी है” बिलकुल सफ़ेद झूठ हैI तो अमेरिका में भ्रष्टाचार कम होने का असली कारण क्या है?
हम पुलिस दल को मोटे तौर पर दो भागो में विभाजित करते है – कनिष्ठ/जूनियर अधिकारी जैसे हवलदार/दरोग़ा और वरिष्ठ/सीनियर अधिकारी जैसे जिला पुलिस आयुक्त/कमिश्नर | अमेरिका में हवलदार शायद ही कभी घूस मांगते है क्योंकि अमेरिका में जिला पुलिस आयुक्त/कमिश्नर उनके लिए जाल बिछाते हैं I हवलदार जानता है की 100-500 बार कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों में से एक व्यक्ति जिला पुलिस आयुक्त/कमिश्नर का बिछाया हुआ जाल है और यदि वह घूस मांगने का साहस करता है तो वह पकड़ा जा सकता है और उसे कारावास हो सकती हैI उदाहरण के लिए, जब मैं वर्ष 1990 से 1998 तक अमेरिका में था, उस समय मुझे ट्रैफिक के नियमों का उल्लंघन करने पर हवलदारों ने 5 बार रोका था। ट्रैफिक के नियमों का उल्लंघन करने पर हवलदारों ने मुझसे 3 बार अर्थदंड/जुर्माना लिया और 2 बार मुझे क्षमा किया, परन्तु एक बार भी उन्होंने संकेत तक नहीं दिया कि घूस लेने में उनकी थोड़ी भी रूचि है | क्यों?
मुख्य कारण है कि वह जानता है कि 200 में से कोई एक ऐसा यातायात उल्लंधनकर्ता आयुक्त/कमिश्नर द्वारा बिछाया गया जाल होता है और उसे नहीं पता कि कौन सा उल्लंधन जाल है I इसलिए वह 200 मामलों में से एक में भी घूस नहीं लेता I और अमेरिका में बहुत से नोडल अधिकारी जैसे जिला शिक्षा अधिकारी, जिला लोक मुकदमा/अभियोग चलाने वाला अधिकारी, राज्यपाल आदि, अधिकारियों, मंत्रियों, न्यायाधीशों के विरूद्ध जाल बिछाते हैं I समय-समय पर जाल बिछाना सभी कनिष्ठ/जूनियर स्टाफ को घूस लेने से मुक्त रखता है I
इसलिए यह तथ्य कि “आयुक्त/कमिश्नर जाल बिछाते है” इस बात को दर्शाता है कि क्यों कनिष्ठ/जूनियर स्टाफ भ्रष्टाचार कम करते हैं | लेकिन फिर क्यों अमेरिका में पुलिस आयुक्त/कमिश्नर घूस के प्रचलन को समाप्त करने के लिए जाल बिछाते है जबकि भारत में अधिकांश पुलिस आयुक्त/कमिश्नर हवलदार को घूस वसूल करने का आदेश देते हैं ? इस अंतर का कारण क्या है? क्यों अमेरिका में भी पुलिस आयुक्त/कमिश्नर हवलदारों को घूस वसूल करने का आदेश नहीं देता? इसका एकमात्र कारण है: अमेरिका में नागरिकों के पास मुख्य जिला पुलिस प्रमुख / डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ को निकालने की प्रक्रिया है। (अर्थात राइट टू रिकॉल (भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा हटाने /बदलने की प्रक्रिया ) या प्रजा अधीन राजा) I
दूसरे शब्दों में, यदि अमेरिका के किसी जिले में नागरिक जिला पुलिस प्रमुख / डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ को निकलना चाहते हैं तो उन्हें डी आई जी या मुख्यमंत्री या गृह मंत्री के पास जाकर कोई अभियोग/मुकदमा दायर करने की आवश्यकता नहीं है I अमेरिका के नागरिकों को भी उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों के पास जाकर कोई बेकार की जनहित याचिका देने की आवश्यकता नहीं है I अमेरिका के नागरिकों को बस यह प्रमाणित करने की आवश्यक्ता है कि जिले के अधिकांश मतदाता पलिस आयुक्त/कमिश्नर को निकलना चाहते हैं I और यदि एक बार किसी जिला पुलिस प्रमुख/ डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ के विरूद्ध बहुमत प्रमाणित हो जाता है तो उसे निकल दिया जाता है और किसी भी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की हिम्मत नहीं है कि वह उसके निलम्बन के निर्णय पर रोक/स्टे का कोई आदेश दे सके या उसे निलंबित करने में देरी करे |
इसी तरह, यदि अमेरिका के नागरिक मुख्यमंत्री, महापौर/नगर अध्यक्ष, जिला न्यायाधीश, जिला लोक अभियोक्ता/प्रोजिक्यूटर , जिला शिक्षा अधिकारी आदि को निकलना चाहें तो उन्हें विधायकों या प्रधानमंत्री या पार्टी के प्रमुख या न्यायाधीश के पास जाने की आवश्यक नहीं है – नागरिकों को मात्र उस जिले या राज्य में बहुमत की राय प्रमाणित करने की आवश्यकता है I इसलिए पुलिस प्रमुख और नोडल अधिकारी डरते है की यदि ये स्टॉफ ज्यादा भ्रष्ट हो गए तो नागरिक उन्हें निकल सकते हैं I और इसलिए पुलिस आयुक्त/कमिश्नर जैसे नोडल अधिकारी जाल बिछाते है और इसीलिए जूनियर स्टाफॅ में भ्रष्टाचार कम है I
अब प्रश्न है कि क्या नोडल अधिकारी को इस प्रकार से निकालने की प्रणाली अर्थात प्रजा अधीन राजा/भ्रष्ट को हटाना/बदलना अमेरिकी अवधारणा/कॉन्सेप्ट है? क्या यह भारतीय विचारधारा नहीं है, जैसा कि बहुत से प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल – विरोधी बुद्धिजीवी कहते हैं? ऐसा नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश का छठा अध्याय है “राज धर्म” I इस अध्याय में स्वामी दयानंद सरस्वती ने बताया है कि नागरिकों अधिकारियों, मंत्रियों और न्यायाधीशों की शक्ति क्या हैं और उनके दायित्व क्या हैं I छठे अध्याय के पहले ही पृष्ठ में स्वामी दयानंद राज धर्म का बुनियाद स्थापित करते हैं। स्वामी दयानन्द ने दो शब्द दिए है “प्रजा-अधीन राजा” और इन दो शब्दों में इन्होंने अच्छी राजनीति के ऊपर 10,000 प्रस्तावों का सार दिया है और फिर वे इन दो शब्दों का विस्तार करते हैं, “राजा को प्रजा के अधीन होना चाहिए नहीं तो वह नागरिकों को लूट लेगा और राष्ट्र का विनाश कर देगा” I और उन्होंने ये श्लोक अथर्ववेद से लिए हैं I
और भारत के पुलिस कमिश्नर, मंत्री, जजों आदि और अमेरिका के पुलिस कमिश्नर, मंत्री, जजों आदि के बीच सरसरी तौर पर तुलना यह दर्शाता है कि हमारे ऋषि मुनि कितने सत्य हैं जिन्होंने अथर्ववेद लिखे हैं और स्वामी दयान्द भी I अमेरिका में नागरिकों के पास जिला पुलिस प्रमुख / डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ, मुख्य मंत्री आदि को निकालने की प्रक्रिया है अर्थात वे सब पदाधिकारी प्रजा अधीन हैं और इसलिए अमेरिका में जिला पुलिस प्रमुख / डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ , न्यायाधीश, मुख्यमंत्री आदि नागरिकों को लूटते नहीं बल्कि नागरिकों की सुरक्षा करते हैं जबकि यहाँ भारत में नागरिक किसी जिला पुलिस प्रमुख/डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ , मुख्यमंत्री आदि को निकाल नहीं सकते अथवा उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और इस तरह वे प्रजा अधीन नहीं हैं |
और इसलिए हम देखते हैं कि यहां भारत में मंत्री व न्यायाधीश जनसाधारण को लूटने में व्यस्त रहते हैं I स्वामी दयानंद का विश्लेषण कितना उचित है –“जैसे माँसाहारी जानवर अन्य जानवरों को खा जाते हैं, उसी प्रकार कोई राजा जो प्रजा अधीन नहीं है, वह नागरिकों को लूट लेगा” I और इसलिए विश्व के सभी चीजों में से सत्यार्थ प्रकाश के यह दो शब्द स्पष्ट करते है कि क्यों अमेरिकी पुलिस में भ्रष्टाचार कम है I और मेरे लिए यह बड़ी विडंबना है कि सत्यार्थ प्रकाश के इन दो शब्द के महत्व को समझाने के लिए मुझे अमेरिका का उदाहरण देना पड़ रहा है |
(2.2) राइट टू रिकॉल ( भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा निकालने / बदलने का अधिकार) और प्रजा अधीन राजा |
अब, राइट टू रिकॉल और “प्रजा अधीन राजा” कैसे सम्बंधित हैं ? राइट टू रिकॉल का अर्थ होता है- वह प्रणाली(सिस्टम), जिसके द्वारा नागरिक किसी भी अधिकारी/ जज /मंत्री को किसी भी समय निकाल सकते हैं किसी उच्च अधिकारी के पास गए बिना ,केवल बहुमत साबित करने के द्वारा I इस तरह से उच्च अधिकारी आम नागरिकों के प्रति जवाबदार होते हैं क्योंकि अधिकारी नियुक्त करने वाले के प्रति जवाबदार नहीं, नौकरी से जो निकाल सकता है उसके प्रति जवाबदार होते हैं, उन्हीं के अनुसार और उनके लिए काम करते हैं |
राइट टू रिकॉल (और राईट टू रिकाल पर आधारित जूरी प्रणाली) एकमात्र ज्ञात प्रणाली है जो राजा को प्रजा अधीन बनाती है और इस प्रकार मंत्री, अधिकारी, पुलिस, और न्यायाधीशों में भ्रष्टाचार कम करती हैI बहुत सारे अन्य संस्था आधारित विकल्प प्रस्तावित हुए हैं जैसे पुलिस बोर्ड, न्याय आयोग आदि। पर वे सब बिलकुल असफल साबित हुए हैं I इस तरह की संस्थाएं भ्रष्टाचार को केवल कुछ समय के लिए रोकती हैं, उसे कम नहीं करतीं I कोई प्रणाली जो राजा को प्रजा से स्वतंत्र (निरंकुश) रखती है वह केवल भ्रष्टाचार को दूसरे हाथों में देती है, उसे कम नहीं कर सकती I
यदि नागरिक के पास अधिकारियों, न्यायाधीशों, मंत्रियों आदि को निकालने का सीधा कोई मार्ग नहीं होगा, और उन्हें निकलने के लिए अन्य अधिकारियों , न्यायाधीशों ,विधायकों, सांसदों, मंत्रियों आदि से याचना करना पड़ेगा तो ऐसे में कोई नागरिक अधिकारियों, न्यायाधीशों और मंत्रियों पर नियंत्रण करने में असफल होगा I अधिकारी, मंत्री, न्यायाधीश आदि जीवन भर घूस लेंगे, अनैतिक कार्यों पर समर्थन की मांग करेंगे और नागरिकों पर अवर्णनीय/बहुत ज्यादा अत्याचार करेंगे ।
और इससे भी बुरा होगा कि वे अपने राष्ट्र को विदेशियों के हाथों बेच देंगेI अधिकारी, मंत्री, न्यायाधीश आदि चाहे वे जूनियर हों या सीनियर, आपस में “एक दूसरे को बचाने” वाला सांठगांठ बनाएंगे और इन सांठगांठ का प्रयोग करते हुए वे एक दूसरे को सुरक्षित रखेंगे I इस प्रकार, भ्रष्टाचारियों के लिए कोई दंड नहीं रहेगा और भ्रष्टाचार अनियंत्रित गति से फैलेगाI वे हमेशा “प्रमाण का अभाव” को बहाना बनाएंगे और साथी भ्रष्ट मंत्रियों, अधिकारियों, न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार का समर्थन करेंगेI नागरिकों का सीधा हस्तक्षेप मानव-जाति में ज्ञात एक मात्र प्रणाली है जो इन सांठगांठों से मुक्ति दिला सकती है I
(2.3) प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल आधुनिक अमेरिका में |
अमेरिका में हटाने/रिकॉल की प्रणाली का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट प्रत्येक राज्य में और प्रत्येक जिले में अलग अलग है I उदाहरण के लिए लगभग 20 राज्यों में नागरिकों के पास राज्यपालों को हटाने/रिकॉल की प्रणाली है I और अनेक अन्य राज्यों में जिला न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का प्रयोग करके हटाने का अधिकार है I अनेक राज्यों में जब वहां के संविधान के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट तैयार हो रहे थे तब राज्यपालों, न्यायधीशों आदि को प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल के सहारे हटाने का अधिकार नहीं था परन्तु बाद में नागरिकों ने राज्यपालों, न्यायाधीशों आदि को हटाने/रिकॉल की प्रणाली को जोड़ा I
और अनेक राज्यों में जनमत संग्रह प्रक्रिया है। और इसलिए अमेरिका के जिन राज्यों में अभी तक हटाने/रिकॉल प्रणाली नहीं है, उन राज्यों के अधिकारी को ज्ञात है की यदि वे अभद्र व्यवहार करेंगे तो नागरिक जनमत संग्रह प्रणाली का प्रयोग करके हटाने/रिकॉल प्रणाली लाने और उन्हें निकालने में पूरी तरह से सक्षम हैं जैसे अन्य कई राज्यों के नागरिक करते हैं I दूसरे शब्दों में, हटाने/रिकॉल का भय प्रत्येक राज्य और जिला अधिकारियों में है यहां तक कि उन राज्यों में भी जहां हटाने/रिकॉल प्रणाली अभी तक नहीं है |
सम्भवतः आपको हटाने/रिकॉल के कुछ वास्तविक उदाहरण जानने में रूचि होगी I एक उदाहरण के लिए, मै अमेरिका के एक समाचारपत्र Palo Alto Daily की एक खबर का लिंक दे रहा हूँ जो 4 मई 2007 के अंक में छपा था I अध्याय क पूरे लेख के लिए इस लिंक को देख सकते हैं:-
http://www.highbeam.com/doc/1G1-163010441.html
शेरिफ मंक के खिलाफ वापस बुलाने के प्रयास शुरू होते हैं
“सान कार्लोस का एक निवासी सान मैत्यो शहर के सबसे बड़े कानून प्रवर्तन (लागू कराने वाले) अधिकारी को वापस बुलाने का प्रयास कर रहा है। माइकल स्टोजनर ने कहा : बृहस्पतिवार को उसने शेरीफ जॉर्ज मंक को वापस बुलाने के लिए सोमवार तक इस आशय की सूचना दर्ज करने की योजना बनाई है। शेरीफ जॉर्ज मंक 19 अप्रैल को लासवेगास में एक गैर कानूनी काम में पकड़ा गया था। 24 अप्रैल को दिए गए बयान में मंक ने कहा: उसने सोचा कि वह एक कानूनी रूप से सही व्यवसाय को देख रहा था और उसने किसी कानून को नहीं तोड़ा। लेकिन उसने किसी प्रश्न का उत्तर देने से मना कर दिया है हालॉंकि स्टॉन्जर यह मानता है कि शेरीफ को वापस बुलाने के लिए व्यापक जनसमर्थन है, किसी शान मात्यु काउन्टी को वापस बुलाना एक बड़ा आदेश है। चुनाव अधिकारी का प्रवक्ता डेविड टॉम ने कहा: देश में दर्ज मतदाताओं के 10 प्रतिशत को रिकॉल प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक आवेदन पर हस्ताक्षर करना होगा। यह लगभग 35 हजार लोगों के बराबर है——“
अमेरिका में शेरिफ का अर्थ है जिला पुलिस प्रमुख/डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ I इनमें से सभी नहीं पर 70 से 80% जिला पुलिस प्रमुख/डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ अमेरिका में जनसाधारण द्वारा चुने जाते है और बचे हुए को नियुक्त किया जाता है I चाहे चुने हुए हों या नियुक्त, अमेरिका में इन जिला पुलिस प्रमुखों को निकालने के लिए नागरिकों के पास औपचारिक और अनौपचारिक प्रणाली है I अनेक जिलों में जनसाधारण के पास महापौर, जिला-सरकार के वकील, जिला शिक्षा अधिकारी आदि को हटाने/रिकॉल करने की प्रक्रियाएं हैं I और क्या अमेरिका में नागरिकों न्यायधीशों को हटाने/रिकॉल की प्रक्रिया से हटा सकते हैं? हां, अनेक राज्यों में न्यायाधीशों को हटाने के लिए प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का कानून है I बहुत से मामलों के उदाहरण हैं जिनमें नागरिकों ने न्यायाधीशों को हटाने के लिए प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का प्रयोग किया है ( http://www.judgerecall.com/ ) और कृपया यह बर्किली विश्वविद्यालय के वेबसाइट का उदाहरण देखें (http://igs.berkeley.edu/library/htRecall2003.html जहाँ से आपको कॅलीफोर्निया राज्य में हटाने/रिकॉल करने की प्रणाली के बारे में जानकारी मिल सकती है I
कैलिफोर्निया में अधिकारियों, न्यायाधीशों को वापस बुलाने के लिए तंत्र
कैलिफोर्निया में अधिकारियों, न्यायाधीशों को वापस बुलाने के प्रयास में पहला कदम वापस बुलाने संबंधी याचिकाओं का वितरण है। यह प्रक्रिया वापस-बुलाने-हेतु-आशय का नोटिस की याचिका जो कि उपयुक्त कानूनी भाषा में लिखी होती है और 65 मतदाताओं द्वारा हस्ताक्षरित होती है, को भरे जाने से शुरू होती है। एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो वापस बुलाने संबंधी याचिका शीघ्रता से परिचालित की जा सकती है। राज्य स्तर के अधिकारियों को वापस बुलाने के लिए याचिकाओं पर उस देश में संबंधित अधिकारी के लिए हुए अंतिम मतदान के एक प्रतिशत की संख्या के बराबर मतदाता, जो 5 काउन्टियों से हों, सहित उस अधिकारी के लिए पिछले मतदान के मत के 12 प्रतिशत के बराबर संख्या में मतदाताओं द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए(हर काउंटी से कम से कम पिछले मतदान के चुनाव के 1% जितनी संख्या होना चाहिए)। राज्य विधायकों को वापस बुलाने के लिए याचिकाओं को उस अधिकारी के लिए हुए अंतिम मत के 20 प्रतिशत के बराबर संख्या में होना चाहिए। वापस बुलाने के लिए मतपेटी के दो भाग होते हैं –
वापस बुलाने के लिए हां अथवा नहीं मतदान और बदले में आने वाले अभ्यर्थियों जो नियमित मतदानों में नामांकन प्रक्रिया का उपयोग करके चुने जाते हैं, के नाम —- कैलिफोर्निया में राज्य स्तरीय अधिकारियों और विधायकों के लिए वापस बुलाने का तंत्र सबसे पहले वर्ष 1911 में संवैधानिक संशोधन के रूप में सामने आया जो वहां के गवर्नर हिराम जॉनसन के प्रगतिवादी प्रशासन द्वारा लागू किए गए सात सुधार उपायों में से एक था। इस संशोधन का सबसे विवादास्पद प्रावधान वापस बुलाए जाने वाले राज्य अधिकारियों में न्यायाधीशों का समावेश और खासकर राज्य सर्वोच्च न्यायालय के र्न्यायाधीशों को शामिल करना था। प्रस्तावक ने इन संशोधनों का समर्थन सरकार में बेइमानी और भ्रष्टाचार से लड़ने के एक और तंत्र के रूप में किया । विपक्ष ने इसे एक ऐसा तंन्त्र कहकर इसकी आलोचना की जो अतिवादी और असंतुष्ट लोग ईमानदार अधिकारियों को तंग करने और उन्हें हटाने के लिए प्रयोग में लायेंगे । वापस बुलाने के प्रयास कैलिफोर्निया में राज्य स्तरीय चुने गए अधिकारियों और विधायकों के विरूद्ध करने के प्रयास किए गए ।
विगत 30 वर्षों में सभी राज्यपालों को वापस बुलाने के प्रयास का कुछ हद तक सामना करना पड़ा है । वर्ष 2003 में राज्यपाल ग्रैन्ड डेविस पहले राज्य स्तरीय अधिकारी बने जिन्हें वापस बुलाने संबंधी चुनाव का सामना करना पडा। राज्य विधायकों के विंरूद्ध वापस बुलाने के प्रयास मतदान करने के स्तर तक पहुंच गए और चार को वाकई वापस बुलाया गया था। सीनेटर मार्शल ब्लैक ( आर – शान्ता क्लाय काउन्टी ) को 1913 में वापस बुलाया गया था और इसके बाद वर्ष 1914 में सीनेटर एडवीन ग्रान्ट ( डी – शान फ्रानसीसको) और एसेम्बली के सदस्य पॉल होरचर ( आर- लॉस ऐंजेल्स काउन्ट) और बोरिस एलेन ( आर – औरेंज काउन्ट) को 1995 में वापस बुलाया गया था। कैलिफोर्निया में स्थानीय सरकार के स्तर पर वापस बुलाने के कई सफल प्रयास हो चुके हैं । सामान्यत: कैलिफोर्निया में वापस बुलाने का सामान्य एतिहासिक पृष्ठभूमि इस प्रकार है:
Bird, Fredrick L., and Ryan, Frances M. The Recall of Public Officers: a Study of the Operation of the Recall in California. New York: Macmillan, 1930. ; Nolan, Martin F. “The Angry Governor [Hiram Johnson],” California Journal, v. 34, no. 9 (Sept. 2003), p. 12-18. ; Spivak, Joshua. Why Did California Adopt the Recall? History News Network, Sept. 15, 2003. ; “The Recall Amendment,” Transactions of the Commonwealth Club of California, v. 6, no. 3 (July1911),p.153-225.(कृपया पूरा लेख यहां पढ़ें) –
http://igs.berkeley.edu/library/htRecall2003.html
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भारत में यदि किसी ने केवल पाठ्यपुस्तक/टेक्सटबुक माफियाओं द्वारा लिखी गई पाठ्यपुस्तक ही पढ़ी हो तो उसके लिए यह विश्वास करना असंभव होगा कि इस ग्रह पर ही एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ नागरिक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक को बहुमत के मत द्वारा निकाल सकते हैं !! ये जनसाधारण ऐसा कैसे कर सकते हैं ? वे इनके साथ ऐसा करने का साहस भी कैसे कर सकते है? — क्योंकि ये न्यायाधीश तो भगवन से भी उपर हैं !! कम से कम 4 अंकों वाले बुद्धि-स्तर (IQ) के बुद्धिजीवी, जो भारत में न्याय-मूर्ति-पूजक हैं, इस बात की पुष्टि करते हैं I तो क्या यदि हटाने/रिकॉल कानून आता है तो क्या निरक्षरता विनाश का कारण बनेगा ? यह हटाने/रिकॉल की प्रणाली(सिस्टम) अमेरिका में वर्ष 1800 से है जब साक्षरता 10 प्रतिशत से भी कम था I तो यह तर्क देना कि- “रिकॉल भारत के लिए सही नहीं है क्योंकि अधिकतर भारतीय अशिक्षित हैं ” -गलत है I
हटाने/रिकॉल का भय एकमात्र कारण है कि क्यों अमेरिका में पुलिस प्रमुख, न्यायाधीश आदि भारत के पुलिस प्रमुखों , न्यायाधीशों आदि की तुलना में बहुत कम भ्रष्ट हैं I कृपया ध्यान दें – अन्य कोई कारण नहीं है I और मैं एक बार फिर दोहराता हूँ – अन्य कोई कारण नहीं है I और सभी गलत तर्कों में से सबसे बेकार तर्क है “राजनीतिक संस्कृति” I “जागरूकता का अभाव” एक और बहुत गलत तर्क है I
फिर, “अमेरिका की पुलिस में भ्रष्टाचार भारत की पुलिस की तुलना में इतना कम क्यों है” इस प्रश्न का उत्तर अथर्ववेद और स्वामी दयानंद जी के शब्दों में देते हुए कहा जा सकता है कि इसका कारण है कि अमेरिका में पुलिस प्रमुख प्रजा के अधीन है जबकि भारत में कोई एक भी पुलिस प्रमुख प्रजा के अधीन बिलकुल नहीं है I अथर्ववेद और स्वामी दयानंद सरस्वती जी कहते है कि यदि राजा (राज कर्मचारी जैसे पुलिस प्रमुख) यदि प्रजा के अधीन नहीं है तो वह नागरिकों को लूट लेगा I जिसे आज हम भारत में हर कहीं देख रहे हैं I
अमेरिका में केवल जिला पुलिस प्रमुख / डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ, राज्यपाल, जिला न्यायाधीश, जिला शिक्षा अधिकारी, जिला लोक दंडाधिकारी(District Public Prosecutor), इतना ही नहीं अमेरिका के कुछ राज्यों में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक प्रजा के अधीन है और इसलिए अमेरिका के ये सरकारी कर्मचारी कम लूट मचाते हैं। और उसी अमेरिका में सीनेटर प्रजा के अधीन नहीं हैं और इसलिए सारे भ्रष्ट है I संघीय अधिकारियों द्वारा नियुक्त किये हुए राष्ट्रपति प्रजा के अधीन नहीं हैं इसलिए वे सारे भ्रष्ट है I तो अथर्ववेद जो कहता है, वह अमेरिका में बिना किसी अपवाद के लागू किया गया है I और भारत में पटवारी से लेकर उच्चतम न्यायालय/सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तक कोई भी प्रजा के अधीन नहीं है I और इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उनमें से लगभग सभी भ्रष्ट हैं I
और हटाने/रिकॉल का यह भय इतना प्रभावशाली है कि नागरिकों को इसका प्रयोग शायद ही कभी करना पड़ता है – अमेरिका में 0.05 प्रतिशत से भी कम अधिकारी को कभी हटाने/रिकॉल का सामना करना पड़ा है I हटाने/रिकॉल की प्रणाली(सिस्टम) ने यह सुनिश्चित किया है कि अमेरिकी अधिकारी भारतीय अधिकारियों की तुलना में शायद ही कभी केवल एक प्रतिशत तक भ्रष्ट होते हैं और अपेक्षित क्षमता से काम करते हैं। वास्तव में, हटाने या रिकॉल की प्रक्रिया पुन:मतदान के दर को कम करती है क्योंकि अधिकारी अच्छा व्यवहार करते हैं और नागरिकों को शायद ही कभी उन्हें (हटाने/रिकॉल) हटाने की आवश्यकता पड़ती है I
अमेरिका के नागरिकों के पास हटाने/रिकॉल की प्रणाली(सिस्टम) वर्ष 1800 से है I परन्तु भारत के प्रमुख बुद्धिजीवी इस बात पर जोर देते हैं कि भारतवासियों को यह प्रणाली आज वर्ष 2011 में भी नहीं दी जा सकती क्योंकि भारतवासी अमरिकी लोगों की तुलना में घटिया हैं और हम भारतवासियों की राजनैतिक संस्कृति, नैतिक मूल्य, मानसिकता आदि घटिया है !! इन प्रमुख बुद्धिजीवियों को मेरा उत्तर है “अपने 4 अंकों के बुद्धि स्तर और अपने सभी ज्ञान के साथ भांड में जाओ” I मेरा यह विश्वास है कि हटाने/रिकॉल की प्रणाली को लाना होगा और यह भारतीय न्याय व्यवस्था, राजनीतिक व्यस्था और प्रशासन से भ्रष्टाचार और भाई-भतीजवाद कम करने का एकमात्र तरीका है I
इसलिए मैं भारत के नागरिकों से यह कहता हूँ कि वे प्रधानमंत्री को सरकारी अधिसूचना(आदेश) जारी करने के लिए बाध्य करें जो हमें प्रधानमंत्री, उच्चतम न्यायालय/सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों, मुख्यमंत्रियों, उच्च न्यायालय के न्यायधीशों, मंत्रियों, जिला पुलिस प्रमुख/डिस्ट्रीक्ट पुलिस चीफ , भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर तथा ऐसे लगभग 200 पदों को बदलने में समर्थ बनाएगा I प्रत्येक पार्टी के ज्यादातर सांसदों और लगभग सभी प्रमुख बुद्धिजीवियों ने हटाने/रिकॉल प्रणालियों के मेरे प्रस्ताव का विरोध किया है I और इससे मुझे और आगे बढ़ने की प्रेरणा ही मिली है I
अब प्रश्न यह है – हम नागरिकगण भारत में प्रजा अधीन राजा/राइट टू हटाने/रिकॉल (राइट टू रिकॉल/भ्रष्ट को बदलना/हटाना ) कैसे ला सकते है? इसके लिए, मैंने जनता की आवाज (पारदर्शी शिकायत / प्रस्ताव प्रणाली(सिस्टम)) पारदर्शी शिकायत/प्रस्ताव प्रणाली कानून के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट का प्रस्ताव रखा है जिसकी चर्चा मैंने अध्याय 1 में की है I
(2.4) भारत में प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल का संक्षिप्त इतिहास |
प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का वर्णन अथर्ववेद में है I अथर्ववेद कहता है की सभी नागरिकों की जनसभा राजा को निकाल सकती है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के छठे अध्याय में राज धर्म का वर्णन किया है और प्रथम 5 श्लोकों में से एक में वे कहते हैं – राजा को प्रजा के अधीन होना चाहिए अर्थात वह हम आमलोगों पर आश्रित हो I कृपया ध्यान दीजिए – उन्होंने “अधीन” शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है पूर्णत: आश्रित और अगले ही श्लोक में महर्षि दयानंद जी ने कहते हैं यदि राजा प्रजा के अधीन नहीं है तो वह राजा प्रजा को उसी तरह लूट लेगा जिस तरह एक मांसाहारी जानवर दूसरे जानवरों को खा जाता है। और इस प्रकार वैसा राजा (जो प्रजा के अधीन नहीं) राष्ट्र का विनाश कर देगा I
और महर्षि दयानंद जी ने ये दोनों श्लोक वर्षों पहले लिखे गए अथर्ववेद से लिए हैं I और यहाँ राजा में प्रत्येक राज कर्मचारी सम्मिलित है अर्थात उच्चतम न्यायालय/सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश से लेकर पटवारी तक सरकार के सभी कर्मचारी I सरकार का प्रत्येक कर्मचारी प्रजा के अधीन होना चाहिए अन्यथा वह नागरिकों को लूट लेगा I ऐसा ही वे महात्मा कहते हैं जिन्होंने अथर्ववेद लिखा और महर्षि दयानंद सरस्वती जी उन महात्माओं की बात से सहमत हैं। इस प्रकार प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल भारतीय वेदों के मूल में है और इस प्रकार सारी
भारतीय विचारधाराओं, भारतीय मत, पंत और धर्मों ने अपनी आधारभूत भावना वेदों से ही ली हैं I
और कृपया ध्यान दीजिए – दयानंद सरस्वती जी संविधान-अधीन राजा के बारे में नहीं कहते। वे प्रजा अधीन राजा/राइट टू हटाने/रिकॉल के बारे में कहते हैं। भारत में, 4 अंकों के स्तर के बुद्धिजीवियों ने हमेशा उस बात का विरोध किया जो अथर्ववेद और सत्यार्थ प्रकाश सुझाते हैं I 4 अंकों वाले स्तर के ये बुद्धिजीवी कहते हैं कि राजा और राज कर्मचारी अर्थात सरकारी कर्मचारियों को प्रजा के अधीन कदापि नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें केवल संविधान-अधीन अर्थात किताबों के अधीन जैसे संविधान के अधीन होना चाहिए। संविधान-अधीन राजा अर्थात संविधान-अधीन मंत्री, संविधान-अधीन अधिकारी, संविधान-अधीन पुलिसवाले और संविधान -अधीन न्यायाधीश की पूरी संकल्पना ही एक छल है क्योंकि तथाकथित संविधान की व्याख्या को न्यायाधीशों, मंत्रियों आदि द्वारा एक मोम के टुकड़े की तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता हैI संविधान की पूरी संकल्पना एक राक्षसी विचार है जिसे केवल भ्रम पैदा करने के लिए ही सृजित किया गया है I
(2.5) पूरे विश्व में प्रजा अधीन राजा / राइट टू रिकॉल का संक्षिप्त इतिहास |
प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का प्रयोग यूनान में वर्ष 500 ईसा-पूर्व में किया गया था I यूनान के लगभग प्रत्येक नगर में यह प्रणाली थी जिससे नागरिक सभा करके राजा को निकल सकते थे I यहाँ तक कि मेसीडोनिया का शक्तिशाली सिकंदर, जिसने यूनान और सिंधू के सभी राजाओं को हराया था, वह भी नागरिकों द्वारा निकाले जाने के दायरे में था !! इस बात का कोई ज्ञात अभिलेख/रिकॉर्ड नहीं है कि क्या इस प्रक्रिया/तरीके का प्रयोग कभी किसी राजा को निकालने के लिए किया गया था? – ऐसा इसलिए था कि प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल एक ऐसा भय पैदा करता है जो राजा को सही व्यहार करने के लिए बाध्य करता है, और उसे निकालने के लिए इस कानून का प्रयोग करने की शायद ही कभी होती है।
अब प्रत्येक राष्ट्र की तरह यूनानी राष्ट्रों को एक और भी मुद्दे का सामना पड़ा – क्या हो यदि राजा स्वयं अभद्र आचरण ना करे परन्तु उसका कोई कर्मचारी अभद्र व्यवहार करे? किसी अधिकारी द्वारा सत्ता का दुरूपयोग जैसे छोटे हरेक मामले पर सभी हजारों नागरिकों की सभा बुलाना बहुत ही महंगा और समय बर्बाद करने वाला काम है। और यदि राजा और वरिष्ठ/सीनियर अधिकारियों को, कनिष्ठ/जूनियर अधिकारियों को नियंत्रित करने का अधिकार दे दिया जाता है तो जूनियर अधिकारी केवल अपने सीनियर अधिकारियों की बात सुनेंगे, नागरिकों की नहीं I तो प्राचीन यूनान के नागरिकों ने अधिकारियों को नियंत्रित करने के लिए एक अत्यधिक कुशल तरीके का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट बनाया I
प्रत्येक बार जब किसी अधिकारी पर अपराध का आरोप लगता था तो यह तय करने के लिए किन्हीं 50 नागरिकों को चुना जाता था जो यह निर्णय लेते थे कि क्या अधिकारी को निकलना है/दंड देना है I और अनियमित तरीके से चुने गए ये नागरिक सर्वोत्तम संभव और कम भाई-भतीजेवाद से प्रभावित, राष्ट्र के सभी नागरिकों की इच्छा के प्रतिनिधि समझे जाते थे( जो ठीक ही था)। और यदि अधिकारी सीनियर है तो उस मामले में निर्णय देने के लिए बिना अनियमित/क्रम-रहित तरीके से 100 नागरिकों को चुना जाता था और यदि वह और अधिक सीनियर है तो 200, 300, 400 या 500 नागरिकों को बुलाया जाता था I सबसे बड़ा निर्णायक-मंडल 500 नागरिकों का था I और उसके ऊपर सभी नागरिकों की सभा होती थी I इसी प्रणाली ने पश्चिम में जूरी व्यस्था को जन्म दिया, एक ऐसी प्रणाली जिसका अभिलेख/रिकॉर्ड प्राचीन चीन अथवा भारत आदि में कभी नहीं मिला I काफी हद तक “जूरी की सुनवाई द्वारा अधिकारियों को निकलने का अधिकार” “प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल स्पष्ट बहुमत द्वारा” की ही तरह है (जिसमें स्पष्ट बहुमत के वोट के द्वारा ऐसा किया (निकला) जाता है)I
बाद में जूरी व्यस्था का प्रयोग आम नागरिकों पर सुनवाई के लिए भी किया जाने लगाI यूनानवासी यह (ठीक ही) विश्वास करते थे की सुनवाई यदि जूरी द्वारा की जाए तो इसमें राजा या नियुक्त किए गए जज द्वारा सुनवाई किए जाने की तुलना में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की सम्भावना कम है और इसलिए यूनान में महत्वपूर्ण सुनवाई हमेशा जूरी के निर्णय से तय होती थी I उदाहरण के लिए सुकरात को फांसी देने के दंड का निर्णय एथेंस के 500 नागरिकों की जूरी ने दिया था I जूरी-मंडल इस बात पर आस्वस्त थे कि सुकरात के उपदेश एथेंस से प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी को पलटने और अनेक एथेंसवासियों की हत्या करने जैसी उसके अनुयायियों (जैसे क्रिटियस) की कार्रवाईयों के लिए जिम्मेदार है I
और इस तथ्य ने कि सुकरात ने प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी को पलटने और प्रजातंत्र के अनेक समर्थकों की हत्या करने जैसे अपने अनुयायियों के कार्यों की कभी आलोचना नहीं की, एथेंसवासियों को सुकरात के विरूद्ध और अधिक क्रोधित कर दिया। इसके अलावा एथेंसवासियों का यह भी मानना था की यदि कोई नागरिक एथेंस की रक्षा के लिए सेना में शामिल होकर सेवा नहीं करेगा तो उसे नर्क में भगवान दंड देंगे I सुकरात युवाओं को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि ये धारणा बकवास हैं और अनेक एथेंसवासी इस बात पर आश्वस्त हो गए कि सुकरात यह सब एथेंस की सेना को कमजोर कहने के लिए कह रहा है I सुकरात को पहले एथेंस छोड़ने के लिए कहा गया, परन्तु जब सुकरात ने एथेंस छोड़ने से मना कर दिया तो उसकी सुनवाई 500 एथेंसवासियों की जूरी द्वारा हुई।
जूरी-मंडल के लगभग 340 सदस्यों ने सुकरात के लिए फांसी का दंड सुनाया और 160 सदस्यों ने अर्थ दंड/जुर्माना लगाने का मत दिया पर फांसी की सजा नहीं सुनाई I सुनवाई के बाद भी, सुकरात को एथेंस छोड़ने का विकल्प दिया गया परन्तु सुकरात ने नहीं जाने का मन बनाया I उम्र-दराज और थकेहारे सुकरात ने संभवतः स्वाभाविक मृत्यु ,जो कुछ वर्षों में आने वाली थी, की तुलना में फांसी पर चढ़ने में अधिक यश और गौरव समझा I और इस प्रकार 500 जूरी के निर्णय पर अमल किया गया I एथेंस और बहुत से यूनानी राष्ट्रों में सभी महत्वपूर्ण निर्णय सीधे नागरिकों द्वारा दिए गए न की नियुक्त किए गए न्यायाधीशों द्वाराI
रोमवासियों में साधारण लोगों की सभा (Assembly of Plebeians) सर्वशक्तिमान थी – और वे सीनेट/राज्यसभा से भी अधिक शक्तिशाली थे I सिद्धांत रूप में, साधारण लोगों की सभा के पास कानून लागू करने और यहाँ तक कि राजा को भी हटाने का अधिकार था I लेकिन चूंकि प्रक्रिया- संहिता यह थी कि “साधारण लोगों में से प्रत्येक को एक निश्चित स्थान पर आना होगा”, इसलिए सभी के स्वयं आने की असंभाव्यता/संभावना न होने की स्थिति ने साधारण लोगों की सभा को महत्वहीन बना दिया I जब जनसँख्या अधिक हो तो “प्रत्येक नागरिकों का एक निश्चित स्थान पर आना” व्यवहारिक विकल्प नहीं है। और एक ऐसी व्यस्था अपनानी चाहिए जिसमें प्रत्येक छोटे क्षेत्र के लिए एक बूथ बनाई जाए I
लेकिन रोमवासी बूथ व्यवस्था के बारे में नहीं सोच सके और न ही रोम के उच्च वर्ग ने बूथ व्यस्था की अनुमति दी और इस प्रकार “साधारण लोगों की सभा” एक (संभारतंत्रीय अव्यवहार्य) बूथों की कमी के कारण अव्यवहारिक विचार बनकर रह गया I रोमवासियों ने उच्च वर्ग के लिए जूरी व्यस्था का प्रयोग अवश्य किया और जनसाधारण के किसी मामले का निर्णय जज करते थे I परन्तु रोमवासी जजों का चुनाव करते थे जिससे अन्याय कम हुआ करता था I कुल मिलाकर, रोमवासियों के पास प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल नहीं था, परन्तु न्यायधीशो/जजों के चुनाव ने एक अत्यन्त सीमित हद तक उन्हें राइट टू रिकॉल प्रदान किया |
तथाकथित काले/अंधेर युग में प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल और जूरी व्यस्था दोनों लुप्त हो गए थे I लगभग वर्ष 700 में, इस्लाम के आक्रमणों के कारण, यूरोप में पुजारियों और राजा के पास आम लोगों को बड़ी संख्या में अस्त्र-शस्त्रों से लैस करने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा था। और इसलिए नागरिकों को अधिक से अधिक हथियार प्राप्त हुए। हम आम लोगों को हथियार से लैस करना और आम लोगों द्वारा हथियारों का बनाना ही लोकतंत्र की जननी/पैदा करने वाली है। आम लोगों को हथियारलैस बनाने से आम लोग इतने मजबूत हो जाते हैं कि वर्ष 950 में इंग्लैण्ड के लोगों ने राजा को कोरोनर की जूरी के रूप में जूरी प्रणाली लागू करने पर मजबूर कर दिया जिसमें अनियमित तरीके से चुने गए 12 नागरिक किसी नागरिक की हत्या करने के दोषी पुलिसवाले को निकाल सकते थे । बाद में यह कोरोनर जूरी प्रणाली इतना लोकप्रिय हो गया कि नागरिकों को यह विश्वास हो गया कि न्यायाधीशों/जजों द्वारा की गई सुनवाई की तुलना में जूरी द्वारा की गई कार्रवाई में भाई-भतीजावाद कम होता है ।
जूरी द्वारा सुनवाई किए जाने की मांग बढ़ती गई और न्यायाधीशों द्वारा की गई सुनवाई या तो कम होती गई या उसका अन्त ही हो गया और वर्ष 1100 आते आते नागरिकों ने इंग्लैण्ड के राजा को मैग्ना कार्टा पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया। इस मैग्ना कार्टा में राजा को यह वचन देने पर मजबूर किया गया कि जूरी से अनुमोदन/स्वीकृति लिए बिना वह और उसके अधिकारी नागरिकों को दण्ड नहीं देंगे और जूरी के पास अधिकारियों को निकालने/ अर्थ दण्ड देने का अधिकार आ गया। इसलिए वर्ष 1200 के आते आते इंग्लैण्ड में कनिष्ठ/जूनियर/छोटे अधिकारियों पर “जूरी प्रणाली से राइट टू रिकॉल” लागू हो चुका था।
अमेरिका वह पहला देश था जहां राइट टू रिकॉल का चलन पूरी तरह से हुआ। मैसाचूसेट्स में पहला पुलिस कमिश्नर/शेरिफ का कार्यालय जो स्थापित हुआ था,उसमें राईट टू रिकाल था लेकिन यह अत्यन्त अनौपचारिक रूप से घोषित किया गया था। अमेरिकावासियों द्वारा वर्ष 1770 में इंग्लैण्डवासियों को निकाल बाहर करने का एक प्रमुख कारण यह था कि ब्रिटिश राजा अमेरिकी कॉलोनियों में जूरी प्रणाली और राइट टू रिकॉल नहीं चाहते थे। 1770 इस्वी में स्वतंत्र होने के बाद राज्यों और जिलों में औपचारिक कानून लिखा जाना प्रारंभ हुआ। अनेक राज्यों ने पुलिस प्रमुखों, स्थानीय न्यायाधीशों और राज्यपालों के लिए राइट टू रिकॉल कानून प्रारंभ किया ।
लेकिन यह राइट टू रिकॉल संघ स्तर(देश स्तर पर) पर लागू नहीं किया गया। क्यों? उस समय, तथाकथित अमेरिकी संघीय सरकार (केन्द्रीय सरकार) को केवल सेना और विभिन्न राज्यों के बीच के संबंधों को चलाने का काम था और इसलिए अमेरिका की स्थापना करने वाले पितामहों ने कभी नहीं सोचा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति, सीनेटरों और संघीय न्यायाधीशों/जजों के हाथों में कभी इतनी शक्तियां होंगी । इसलिए किसी ने भी राष्ट्रपति, सीनेटरों, संघीय न्यायाधीशों/जजों और संघीय अधिकारियों पर राइट टू रिकॉल लागू करने की बात कभी नहीं सोची। यही कारण है कि अमेरिका के ये सभी संघीय अधिकारी पूरी तरह भ्रष्ट हैं लेकिन उसी अमेरिका में राइट टू रिकॉल के अधीन आने वाले अधिकारी जैसे पुलिस प्रमुख, राज्यपाल, स्थानीय न्यायाधीश आदि कम भ्रष्ट हैं। इसलिए यह कोई संस्कृति या राजनीतिक संस्कृति या राष्ट्रीय चरित्र नहीं है – यह राइट टू रिकॉल का लागू होना या न होना है जो यह निर्णय करता है कि कोई अधिकारी कितना भ्रष्ट होगा।
कार्ल मार्क्स और एंजेल्स ने प्रजा अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन किया। कार्ल मार्क्स को फ्रेडरिक एंजेल्स द्वारा दी गई (1991) प्रस्तावना फ्रांस में गृहयुद्ध 1871 http://wwwImarxistsIorg/archive/marx/works/1871/civil-war-france/postscriptIhtm में उद्धरण है ––
“बिलकुल प्रारंभ से ही सर्वसाधारण(Commune) इस बात को मानने के लिए बाध्य था कि यदि मजदूर वर्ग इस बार सत्ता में आ जाता है तो वह पुराने राज्यतंत्र के प्रबंधन तरीकों से नहीं चलेगा अर्थात अभी-अभी जीते गए एकमात्र राज्य/ सत्ता को फिर से नहीं खोने के उपाय के रूप में इस मजदूर वर्ग को – एक ओर उन सभी कुचलने वाले तंत्रों, जो पहले उसके ही खिलाफ प्रयोग में लाए जाते थे – का खात्मा करना होगा और दूसरी ओर इसे अपने ही सरकारी अधिकारियों से अपने आप को बचाना होगा। ऐसा उन्हें (अधिकारियों को) बिना किसी अपवाद के , किसी भी समय वापस बुलाए जाने के अध्यधीन घोषित करके करना होगा । पूर्ववर्ती राज्यों के विशिष्ट वे कौन से लक्षण थे ? समाज ने अपने सार्वजनिक हितों की देखभाल के लिए मजदूर के आम विभाजन के जरिए अपना तंत्र सृजित किया था लेकिन इस तंत्र ने, जिसके शीर्ष पर राज्य की शक्ति थी, समय बीतने के साथ अपने विशेष हितों के अनुपालन में अपने आप को `समाज का नौकर` से रूपांतरित कर `समाज का मालिक` बना दिया। उदाहरण के लिए, इसे न केवल वंशानुगत राजतंत्र में देखा जा सकता है बल्कि ऐसा लोकतांत्रिक गणराज्य में भी देखा जा सकता है………”
लेनिन और जोसेफ स्टॉलिन ने भी राइट टू रिकॉल का समर्थन किया था I जोसेफ स्टॉलिन ने वर्ष 1937 में इंग्लॅण्ड, यूरोप, और अमेरिकी प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी (लोकतंत्र) का यह कहकर मजाक उड़ाया था कि इनके यूरोप में रिकॉल की प्रणाली (भ्रष्ट को हटाने की प्रणाली) नहीं है I और स्टॉलिन ने यह दावा किया था कि सोवियत का प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी श्रेष्ठ है क्योंकि सोवियत प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी के पास स्थानीय निचली संसद के अधिकारी (डिप्टी) स्तर पर रिकॉल की प्रणाली है I स्टॉलिन ने वर्ष 1937 में कहा था :
“इसके अलावा, कामरेडों, मैं आपको कुछ सलाह देना चाहूँगा, एक प्रत्याशी की उसके मतदाताओं को सलाह। यदि तुम पूंजीवादी देशों का उदाहरण लोगे तो तुम विशेषकर पाओगे कि, और मैं अवश्य कहूंगा कि उन देशों में अत्यंत विचित्र संबंध प्रतिनिधियों और मतदाताओं के बीच मौजूद है। जब तक चुनाव की कार्रवाई चल रही होती है तबतक प्रतिनिधि मतदाताओं को रिझाते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, कृतज्ञता की सौगंध खाते हैं और हर तरह के वायदों का ढेर लगा देते हैं। ऐसा लगता है मानों ये प्रतिनिधि मतदाताओं पर पूरी तरह आश्रित हैं । जैसे ही चुनाव खत्म होता है और ये प्रत्याशी प्रतिनिधि बन जाते हैं तो संबंधों में पूरी तरह से बदलाव आ जाता है।
मतदाताओं पर निर्भर होने की बजाए ये प्रतिनिधि पूरी तरह स्वतंत्र हो जाते हैं। अगले चार या पांच वर्षों के लिए, अर्थात अगले चुनाव तक ये प्रतिनिधि जनता से और अपने मतदाताओं से भी स्वतंत्र, बिलकुल उनमूक्त महसूस करते हैं । वे एक पार्टी/दल से दूसरे पार्टी/दल में जा सकते हैं। सही रास्ते से गलत रास्ते पर जा सकते हैं। वे यहां तक कि ऐसे मशीनी तरीकों/साजिशों में लिप्त हो जाते हैं जो चटपटे नहीं होते । वे जितनी चाहे उतनी कलाबाजियां खा सकते हैं। वे स्वतंत्र जो हैं। क्या ऐसे संबंध सामान्य माने जा सकते हैं । कामरेडों, नहीं, किसी भी तरह से नहीं।
यह परिस्थिति हमारे संविधान द्वारा विचार के लिए ली गई थी। और इसमें एक कानून बनाया गया था कि मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों को उसके पद की अवधि समाप्त होने के पहले ही तब वापस बुलाने, राइट टू रिकॉल का अधिकार होगा जब ये प्रतिनिधि तिकड़मबाजी करना शुरू कर दें, यदि वे रास्ते से भटक जाएं और यदि वे भूल जाएं कि वे जनता पर, मतदाताओं पर निर्भर हैं ।“
मैं महाँन स्टॉलिन का प्रशंसक हूँ, क्योंकि उसने एक विशाल सेना का निर्माण किया था जिसने वर्ष 1940 में रूस की रक्षा हिटलर से और बाद में वर्ष 2000 में जॉर्ज बुश और टोनी ब्राउन से की थी I परन्तु स्टॉलिन का राइट टू रिकॉल प्रणाली एक पूर्ण परिहास था — किसी भी नागरिक को, जो राइट टू रिकॉल की मांग करता था, को या तो कारावास या यहां तक कि फांसी भी दी जा सकती थी। इसलिए जहां एक ओर स्टालिन ने सिद्धांत रूप में राइट टू रिकॉल का समर्थन किया वहीं व्यावहारिक रूप में उसने इसका विरोध किया था। साथ ही उसका यह बताना कि पश्चिम में राइट टू रिकॉल नहीं है, गलत था।( अलग से: मैं यह दोहराना चाहूँगा कि मैं स्टालिन का प्रशंसक हूँ क्योंकि उसने एक सेना, हथियार बनाने के कारखाने और परमाणु हथियारों का निर्माण किया जिससे रुस की रक्षा हुई। स्टॉलिन के सेना को सुदृढ़ करने का तरीका वह एकमात्र कारण हैं जिसके कारण अमेरिका और इंग्लैण्ड ने आज भी रुस को एक इराक बनाने का साहस नहीं किया है।)
(2.6) आधुनिक भारत में राइट टू रिकॉल |
भारत में एम एन रॉय ने 1946 में लिखी अपनी पुस्तक “द क़ानून-ड्राफ्ट कान्सटिट्यूशन ऑफ इंडिया” में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन किया। भारत की दो प्रमुख कम्यूनिस्ट पार्टी/दल सी पी आई और सी पी एम अपने भाषणों में वर्ष 1950 के दशक से ही वापस बुलाने के अधिकार अर्थात प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल की मांग करते आ रहे हैं। और भारत में 960 से भी अधिक पंजीकृत पार्टी/दल हैं जिनमें से तीन सौ से अधिक पार्टी/दल प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन करते हैं। जय प्रकाश नारायण 1950 के दशक से ही प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल की मांग करते रहे और 1970 के दशक में उन्होंने अपनी मांग तेज कर दी थी।
जनता पार्टी के 1977 के चुनाव घोषणापत्र, जिसपर मोरारजी देसाई, अटल बिहारी बाजपेई और लाल कृष्ण आडवानी आदि सरीखे नेता चुनाव लड़े, की मुख्य मांगों में से एक प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल की मांग थी। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने असंख्य बार प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन किया है । और उनके द्वारा इसके लिए समय आने पर कार्रवाई न करना निराशाजनक है। उदाहरण के लिए, 1977 में, बहुत बड़े अंतर से संसद का चुनाव जितने के बाद यदि जय प्रकाश 500,000 युवाओं को संसद को घेरने और तबतक सांसदों से बाहर आने नहीं देने को कहते जबतक कि वे प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानून को लागू न कर दें, तो भारत को तीन ही दिनों में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानून मिल गया होता । लेकिन जयप्रकाश ने कभी भी युवाओं से ऐसा आह्वान नहीं किया । वर्ष 2004 में भी जब सी पी आई/सी पी एम के 60 सांसद थे तब भी उन्होंने अपने प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट पर मतदान की मांग नहीं की।
और भारतीय सांसदों और उम्मीदवारों में से किसी ने भी (मुझे छोड़कर) कभी प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट प्रस्तुत नहीं किया। मई 2009 में संसद के चुनाव में 5000 से ज्यादा उम्मीदवार थे। लालू यादव जैसे कईयों ने कहा कि वे प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन करते हैं। लेकिन मैं एकमात्र उम्मीदवार था जिसने उस प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानूनों का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट दिया जिसका मैं समर्थन करता हूँ । सी पी आई और सी पी एम के सांसदों ने उन प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल प्रक्रिया/तरीकेओं के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट उपलब्ध कराने से हमेशा इनकार किया जिनका वे समर्थन करते हैं। जय प्रकाश नारायण ने 25 वर्षों में कभी प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट नहीं दिए और हमेशा प्रारूपों पर चर्चा को टालते रहे।
लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे जय प्रकाश नारायण के अनुयायी दावा करते हैं कि वे प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन करते हैं लेकिन जिन कानूनों का समर्थन करने का वे दावा करते हैं उनके प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट देने से इन्होंने मना कर दिया। सोमनाथ चटर्जी पिछले 25 वर्षों से सांसद रहे हैं और 25 वर्षों से इन्होंने प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन किया है लेकिन जिस प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानून का ये समर्थन करते हैं उसका प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट को इन्होंने कभी आत्मसात नहीं किया। मरे विचार में, ये सभी प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट रहित नेता झूठे, जालसाज, धोखेबाज और ढोंगी हैं।
1990 तक, समाचारपत्रों के स्तंभलेखक, पाठ्यपुस्तकों के माफिया और मीडिया के मालिकों ने यह तय कर दिया कि समाचार पत्रों और पाठ्यपुस्तकों में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल पर कोई जानकारी बिलकुल ही नहीं है। आज, शायद ही कोई युवा यह जानता है कि प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का मतलब क्या है और यहां तक कि राजनीति शास्त्र के स्नातकोत्तर/एमए भी नहीं जानते कि अमेरिका के नागरिकों के पास पुलिस प्रमुख और न्यायाधीशों के विरूद्ध प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल है। यहां तक कि जय प्रकाश नारायण के समर्थकों ने भी 1980 के बाद व्यवहारिक तौर पर प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल की अनदेखी करना शुरू कर दिया।
भारत में धनवान व्यक्ति प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल से अत्यंत घृणा करने लगे। अब अधिकांश बुद्धिजीवी धनवान लोगों के ऐजेंट हैं और इसलिए सभी बुद्धिजीवियों ने भी प्रधानमंत्री, मुख्य मंत्रियों, न्यायाधीशों के विरूद्ध प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का विरोध किया । इस हद तक कि भारत के इन बुद्धिजीवियों ने अपने स्तंभों और पाठ्यपुस्तकों में इन समाचारों को भी लिखने से इनकार कर दिया है कि अमेरिका के नागरिकों के पास जिला पुलिस प्रमुखों और न्यायाधीशों को निकालने की प्रक्रिया/तरीके है। यह सोचकर कि ऐसे न हो कि ये जानकारी से समाचार पाठक और छात्र प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल के बारे में सोचने लगें ।
अधिकांश सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, सेनानिवृत्त न्यायाधीशों आदि जिनसे मैं मिला हूँ , उन्होंने प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का विरोध किया है और सबसे ज्यादा नुकसान किसी और ने नहीं बल्कि जय प्रकाश नारायण ने किया है जिन्होंने हमेशा स्वयं को प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल के समर्थक होने का दिखावा किया लेकिन जब जनता पार्टी के उनके अपने आदमी वर्ष 1977 में सत्ता में थे तब प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट प्रस्तावित करने से मना कर दिया ।
जब मैंने भारत में 13 जुलाई 1999 को प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानून प्रारूपों/ड्राफ्टों का प्रचार – प्रसार शुरू किया तों मैने पाया कि युवाओं में से लगभग किसी को भी प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । यह विशेष रूप से मेरे 8-10 समाचार पत्रों के विज्ञापनों, 100000 पर्चियों (पम्फलेटों) के वितरण, 1000000 से भी ज्यादा ई-मेल भेजने और इंटरनेट समुदायों में 10 हजार बार लिखने के कारण है कि 13 जुलाई, 2010 तक भारत में लगभग 50 हजार से 1 लाख लोग यह जान पाए कि प्रधान मंत्री, मुख्यमंत्रियों, न्यायाधीशों के विरूद्ध प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल क्या है।
इस 50 हजार से 1 लाख लोगों में से कई लोगों ने इस खबर को आगे फैलाना शुरू कर दिया और भारत के 60 वर्षों के इतिहास में मैं पहला और एकमात्र चुनावी उम्मीदवार था जिसने प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानूनों के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट का प्रस्ताव किया है जिसकी मैं मांग कर रहा हूँ और वायदा करता हूँ । मैं नागरिकों से अनुरोध करता हूँ कि वे उन नेताओं से प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल कानूनों के प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट की मांग करें जो प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थक होने का दावा करते हैं। इस अनुरोध से बचने या इसकी अनदेखी करना यह साबित कर देगा कि वे वास्तव में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन नहीं करते और वे केवल पांचवीं सदी के यूनानी चिकित्सक की ही तरह हिपोक्रैटिक हैं।
कुल मिलाकर, समकालीन भारत में अर्थात वर्ष 2010 में मैं उन कुछेक राजनीतिज्ञों में से हूँ जो प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल की जानकारी फैला रहे हैं। यदि मेरा तरीका सही है तो जल्दी ही नया आने वाला हरेक राजनीतिज्ञ प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का समर्थन करने को बाध्य होगा और इससे भारत में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का आना सुनिश्वित होगा।
(2.7) भारत में राइट टू रिकॉल / प्रजा अधीन-राजा प्रणाली (सिस्टम) की संवैधानिक वैधता |
भारत में बुद्धिजीवी इस बात पर जोर डालते है की राइट टू रिकॉल असंवैधानिक है !! सातवें अध्याय में मैंने सरकारी अधिसूचना(आदेश) का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट प्रदान किया है जिसका प्रयोग करके नागरिक सुप्रीम कोर्ट के प्रधान जज(उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश) को बदल सकते हैं I आज तक किसी भी बुद्धिजीवी को प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट पढ़ने और मुझे बताने का समय नहीं मिला कि मेरे प्रस्तावित सरकारी अधिसूचना(आदेश) का कौन सा खण्ड संविधान का उल्लंघन करता है !! या ऐसा हो सकता है जो प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट मैंने अपनी वेबसाइट पर दिया है उन्होंने उसे पढ़ा हो पर जो मैंने उन्हें व्यक्तिगत रूप से दिया है या मेल भेजकर दिया है, उन्हें उसमें कुछ असंवैधानिक नहीं मिल पाया हो और इसलिए वे दावा कर रहे हैं कि उन्होंने प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट को पढ़ा ही नहीं हैI जो भी हो,
हम नागरिकों ने संविधान लिखा है और हम नागरिक ही निर्णय लेंगे की क्या संवैधानिक है और क्या नहीं | और इसलिए मेरा लिखा प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट संवैधानिक है या नहीं इसका निर्णय भारत के नागरिक लेंगे ना कि भारत के सुप्रीम कोर्ट के जज |
क़ानून संवैधानिक है या नहीं इसका निर्णय करने का भारत में तरीका क्या है?
1) भारतीय सरकार कोई भी क़ानून बना सकती है |
2) यदि कोई क़ानून को असंवैधानिक होने का दावा करता है तो उसे उच्चतम न्यायालय या उच्च नयायालय के न्यायाधीशों को उसे रद्द करने के लिए कहना पड़ेगा |पहले न्यायाधीशों को कोई क़ानून संवैधानिक/असंवैधानिक पर सहमत होते हैं , फिर नागरिकों को निर्णय लेना होगा | यदि नागरिक बहुमत न्यायाधीशों से असहमत होते हैं तो , वे सांसदों से न्यायाधीशों को हटाने के लिए कह सकते हैं और उनके बदले किसी और न्यायाधीश को रखने के लिए कह सकते हैं जो उनके बहुमत के अनुसार निर्णय बदल दे|
`पारदर्शी शिकायत प्रणाली` और प्रजा अधीन प्रधानमंत्री का हर खंड संविधान के अनुच्छेद भाषण की स्वतंत्रता से आता है
(2.8) क्या आधुनिक अमेरिका में राइट टू रिकॉल / भ्रष्ट को नागरिकों द्वारा बदलने का अधिकार अथर्ववेद से आया ? |
क्या आधुनिक अमेरिका में राइट टू रिकॉल अथर्ववेद से आया ? अमेरिका और यूरोप में प्रजातंत्र/डेमोक्रेसी और राइट टू रिकॉल से जुड़े हुए अधिकतर राजनीतिक विचार तब आए जब अँग्रेज़ों ने भारत में कदम रखा और उन्होंने संस्कृत में लिखे मूलग्रंथों को देखा I और वर्ष 1757 में इन विचारों में तब तेजी आई जब रोबर्ट क्लाइव ने सिराज-उद्दौला को हरा दिया और कोलकाता और भारत के अन्य शहरों से दस हजार से भी ज्यादा संस्कृत की प्राचीन पुस्तकों को खरीदकर या उन्हें जब्त करके उन्हें जहाज में भरकर इंग्लैण्ड भेज दिया। लगभग वर्ष 1758-60 में बहुत सारे पुस्तक इंग्लैण्ड से अमेरिका भेज दिए गएI और 1760 के दशक की शुरूआत में अमरिका में प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल सामने आया I अब मेरे पास इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि अमेरिका के राजनीतिक विचारकों ने प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल का विचार संस्कृत के ग्रंथो से लियाI पर लागू होने का काल इतना महत्वपूर्ण है कि इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती |
(2.9) राइट टू रिकॉल की मेरी खोज और अथर्ववेद (सत्यार्थ प्रकाश) |
मुझे वर्ष 1987 में IITD में अपने आर्य समाजी साथी से सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने का अवसर मिला जब हमदोनो एक ही कमरे में रहते थे I उस पुस्तक का एक श्लोक कि “राजा को प्रजा के अधीन होना चाहिए” मेरे दिल को छु गया और हमेशा के लिए मेरे ह्रदय में रह गया I पर क्योंकि मैं अपनी पढाई और परीक्षा आदि में इतना व्यस्त हो गया कि कुछ वर्षों में मैं भूल गया कि मैंने इस श्लोक को सत्यार्थ प्रकाश में पढ़ा है Iफिर 1990 में मैं अमेरिका चला गया और मैंने देखा की पुलिसवाले, कनिष्ठ/जूनियर अधिकारी आदि यहां वास्तव में भ्रष्ट नहीं हैं I मैंने इसका कारण ढ़ूंढना शुरू कियाI उन दिनों वहाँ भी कोई इंटरनेट नहीं था, और पता लगाने के लिए मैं 100 से भी अधिक ग्रन्थालय गया और मैने अनेक नगर-बैठकों में हिस्सा लिया I
लगभग 7 वर्षों के बाद वर्ष 1997 में मुझे इस सच्चाई का पता लगा कि अमेरिका के नागरिकों के पास किसी भी जिला पुलिस प्रमुख को निकालने की प्रणाली है और तभी “राजा को प्रजा के अधीन होना चाहिए” की सूक्ति मेरे मन में अचानक आई और तुरंत ही मुझे यह बात समझ आई कि अमेरिका के पुलिस में भ्रष्टाचार इतना कम क्यों है I परन्तु उस समय 1997 में मुझे यह स्मरण नहीं हो रहा था कि मैंने यह वाक्य कहाँ और किस पुस्तक में पढ़ा है I वर्ष 2009 में मैं परम पूजनीय बाबा रामदेव जी के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ जुड़ा और भारत स्वाभिमान के कार्यकर्ताओं को राइट टू रिकॉल का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट दिखाया I भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के अनेक कार्यकर्ताओं ने कहा कि राइट टू रिकॉल का विचार सत्यार्थ प्रकाश के विचार से पूरी तरह मिलता है I और वर्ष 2010 में मैंने सत्यार्थ प्रकाश एक बार फिर पढ़ी और मुझे याद आया की मैंने यही पुस्तक वर्ष 1987 में पढ़ी थी और जो राइट टू रिकॉल के मेरे विचार को आगे बढ़ा रही है I
तो हाँ, सत्यार्थ प्रकाश के छठे अध्याय के पहले पृष्ठ में उल्लिखित यह वाक्य कि “राजा को प्रजा के अधीन होना चाहिए” बहुत हद तक मुझे इसे समझने और प्रजा-अधीन राजा/राइट टू रिकॉल प्रणाली का प्रारूप/क़ानून-ड्राफ्ट लिखने की प्रेरणा दे रहा है |